साथ-साथ

Tuesday, December 28, 2010

कैलेंडर है डरा-डरा

जाने-माने गीतकार-कवि हैं यश मालवीय। इलाहाबाद में रहते हैं और निरंतर सृजनशील हैं। बीत चले और आ रहे वर्ष की संधिरेखा पर प्रस्तुत है उनकी यह गीत-कविता।

गया साल नया साल/ यश मालवीय
धुआं-धुआं हो रहा किस तरह
चमन हमारा हरा-भरा
गए साल ने सिर्फ दिया है
ओर-छोर तक बस कुहरा
तोड़ नहीं पाता कोई स्वर
सन्नाटा गहरा-गहरा
तकलीफों का एक समंदर
सबकी आंखों में लहरा।

उम्मीदों के कई-कई जलयान
आग की लपटों पर
छाती और पेट पर बांधे
चटूटानों जैसे पत्थर
रहे तैरते एक साथ
कितने-कितने से संवत्सर
जिनका मुंह नोचती रही हैं
मिलकर छायाएं बर्बर।

नए साल तुम आए हो तो
आओ बैठो पास जरा
अच्छा-अच्छा सुनना क्या है
सुन लो थोड़ा बुरा-बुरा
उखड़ रही सांसों पर
नंगी बंदूकों का है पहरा
जिंदा है हैवान यहां पर
बस देखो इन्सान मरा।

नए साल तुम गए साल की
भूलों को दुहराना मत
तारीखें जो बीत गई हैं
उनको अब गुहराना मत
पूरी शक्ल दिखाई दे
तुम शीशे-सा चिहराना मत
लेकिन यह भी सही
कि जो भी हुआ उसे बिसराना मत।

तुमसे है आइना मांगता
देखो तो चेहरा-चेहरा
नहीं वक्त को होने देना
तुम लूला लंगड़ा बहरा
उन्हें बुझाना लहर-लहर पर
जो भी अंगारा तैरा
लिखना अगला पैरा
लेकिन ध्यान रहे पिछला पैरा।

सांप सियासत वाला हम क्यों
अपने भीतर पोस रहे?
हर आक्रोश दफन हो जाए
क्यों इतना संतोष रहे?
बेतरतीब रोशनी वाले
अंधियारों को कोस रहे
ऐसे नहीं सवेरा होगा
अब इतना तो होश रहे।

अपनी ही छाती पर जैसे
तुमने अपना पांव धरा
ऐसा कुछ तो करो
तुम्हारा रूप रहे निखरा-संवरा
खुद से आंख मिलाए कैसे
कैलेंडर है डरा-डरा
गए साल का जख्मी होकर
जाना बहुत-बहुत अखरा।

धुआं-धुआं हो रहा किस तरह
चमन हमारा हरा-भरा!

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