हिन्दी गजल की दुनिया में जहीर कुरेशी जाना-पहचाना नाम हैं। मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में रहते हैं। अबतक उनकी गजलों के पांच संग्रह प्रकाशित हैं। इनमें चांदनी का दुख, समंदर ब्याहने आया नहीं है व भीड़ में सबसे अलग खासा चर्चित रहे हैं। पेश हैं उनकी दो गजलें-
दो गजलें/ जहीर कुरेशी
॥ एक॥
बिकना था आसान, बेचना भी आसान हुआ
बाजारों से घर तक बिकने का सामान हुआ।
लोग सूचना की सीमा-रेखा तक सीमित हैं
हमें सूचनाओं के मंथन से ये ज्ञान हुआ।
एक कहावत इस युग में भी सच्ची लगती है
ऊंची थी दूकान मगर फीका पकवान हुआ।
जिसे जरूरत थी वो समझा नहीं युक्ति मेरी
जान-बूझकर शर्त हारने से भी दान हुआ।
उसे हवेली की गतिविधियों का अंदाजा है
बरसों तक जो व्यक्ति हवेली का दरबान हुआ।
सिक्के के दो पहलू जब से हुए एक जैसे
तब से सिक्के को उछालना भी अपमान हुआ।
अगर भावना है तो जीवित लगते हैं संबंध
भावहीन होते ही हर रिश्ता बेजान हुआ।
॥ दो॥
दीपक के मन में रहती है जलने की लालसा
अंधियार का चरित्र बदलने की लालसा।
मछली भी यत्न द्वारा शिकारी के हाथ से
करने लगी बलात फिसलने की लालसा।
पेड़ों की टहनियों पे जो कलियां हैं अधखिली
उनमें कहीं है फूलने-फलने की लालसा।
ठोकर इसी वजह से जरूरी लगी मुझे
ठोकर से जागती है संभलने की लालसा।
यायावरी का शौक अभी कल्पना में है
हिमखंड करते रहते हैं गलने की लालसा।
प्रतिभा को सिद्ध करने की जिद पालने के बाद
है लड़कियों में घर से निकलने की लालसा।
दुपहर के सूर्य जैसी प्रखरता को प्राप्त कर
रखता है कौन शाम को ढलने की लालसा?
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