साथ-साथ

Thursday, December 9, 2010

कैसे-कैसे दाम चुकाते हैं!

हिन्दी के समकालीन गजलकारों में देवमणि पांडेय की खास जगह है। मुंबई में रहने वाले देवमणि पांडेय उन गिने-चुने गजलकारों में हैं जो निरंतरता बनाए हुए हैं और लगातार अच्छी गजलें कह रहे हैं।

दो गजलें/ देवमणि पांडेय

॥ एक॥
इस जीवन में ऐसे भी कुछ अवसर आते हैं
जब कांटों से ज्यादा हमको फूल सताते हैं

गाए गीत वफा के हमने मगर हुए रूसवा
हम भी प्यार के कैसे-कैसे दाम चुकाते हैं

दिल का हाल सुना दूं लेकिन सोच के डरता हूं
दुनिया वाले गम वालों की हंसी उड़ाते हैं

आंखों के बहने पर क्यूं है इतनी हैरानी
सुख-दुख के मौसम तो यूं ही आते-जाते हैं

सबसे मिलने की चाहत अब नहीं रही दिल में
फिर भी जो मिलता है उससे हाथ मिलाते हैं।

॥ दो॥
कतरे को इक दरिया समझा मैं भी कैसा पागल हूं
हर सपने को सच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूं

तन पर तो उजले कपड़े थे पर जिनके मन काले थे
उन लोगों को अच्छा समझा मैं भी कैसा पागल हूं

पाल पोसकर बड़ा किया था फिर भी इक दिन बिछड़ गए
ख्वाबों को इक बच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूं

कांटे सी खुद मेरी शोहरत हर पल दिल में चुभ जाती है
फन को खेल-तमाशा समझा मैं भी कैसा पागल हूं।

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