साथ-साथ

Saturday, November 20, 2010

धर्म से बड़ा एक पूजा स्थल

जनकवि बाबा नागार्जुन ने अपनी एक कविता में धर्म से भी बड़े पूजा स्थल की शिनाख्त की है। यह कविता उन्हें मिली भी अपने गांव तरौनी में। पढि.ए 1960 में लिखी यह कविता...

जोड़ा मंदिर/ नागार्जुन
कच्ची सड़क के किनारे ही
देखा, पास-पास छोटे-छोटे मंदिरों का एक जोड़ा
पूछा एक घसियारिन से-
अरी ओ, किसने बनवाया है
बीच परती-पांतर में यह जोड़ा मंदिर?

खुर्पी सहित दायां हाथ उठाकर
करती हुई उधर ही इंगित
बोली वह ठिगनी घसियारिन-
थापित हुई है वहां पर पिंडी
भोकर राउत और मुंगिया की माई की
बूढ़े-बूढ़ी की समाधि पर
खड़ा कर दिया है बेटे ने जोड़ा मंदिर
धन्य वैसे मां-बाप
धन्य वैसे पूत...
खड़ा-खड़ा ही हो गया तनिक ध्यानस्थ
झुका लिया सर
भोकर राउत और मुंगिया की माई की स्मृति में

दूसरे दिन
पोखरे के भीटे पर
मौलश्री की छांह में
आराम करता मिला सरजुग
कुशल-समाचार पूछा-पूछी के तुरत बाद
कहा मैंने सरजुग राउत से-
एहो सरजुग, बाप-मां की समाधि पर
तरौनी गांव में कहां किसी ने खड़ा किया था जोड़ा मंदिर!
पतली मूंछोंवाला सांवरा ग्रामीण युवक
सरजुग राउत
बोला निरभिमान स्वर में-
अपने ही हाथों बूढ़े ने पारसाल
लगाया था पांच कटूठे में गन्ना
उसी में से पांच-एक सौ
लगा दिए हैं उनके नाम पर
माह के भीतर ही दोनों जनों ने मूंद ली आंखें
क्रिया-कर्म भोज-भंडारे में खर्च हो गए करीब हजार रूपए
लेकिन, खुद मुझे तो हुआ ही नहीं संतोष उससे...

फागुन जाते-जाते इस बार
मिलवाले ने पर्ची दी
राटन पर तौला आया गन्ना
दो दिन बाद हाथ में पड़े
नौ नम्बरी, सात दस के, एक के छै...
गांव में ही मिल गइं
सीमेंट की दो बोरियां, पक्की इंट करीब तीन हजार
बूढे.-बूढ़ी के मंदिर हो गए सहज ही तैयार...

इतना कहकर
झुका लिया सर
संकोच वश टूंगने लगा दूब
पतली मूंछोंवाला सरजुग राउत

थोड़ा आगे बढ़कर
उसकी पीठ पर फिराता हुआ हाथ
गदगद होता हुआ कहा मैंने-
आज तक इस इलाके में
कहां सूझी थी किसी को यह बात!
देश-विदेश पूरा दुनिया-जहान
धांग आया हूं मैं...
कहां कहीं देखा है
मां-बाप के नाम बना जोड़ा मंदिर
वाह सरजुग, धन्य हो तुम!

हुआ संकोच भंजन
तब बोले
सरजुग राउत उर्फ सरजुग यादव-
हमारे बूढ़े-बूढ़ी में रहा करता था हद से ज्यादा मेल
वैसा नहीं देखा होगा किसी ने कहीं
सो हम सब खुद हैं साक्षी
सभी को है पता अच्छी तरह से
हमारे बूढ़े-बूढ़ी के बीच कहां कभी हुआ झगड़ा-तकरार
हमारे बूढ़े-बूढ़ी के बीच कहां कभी रही अदावत
कहावत भी है कि एक प्राण-दो देह
बिलकुल उसी का नमूना थे हमारे बूढ़े-बूढ़ी
इसी कारण सूझी यह बात
बना दिया है जोड़ा मंदिर
चढ़ा आता हूं जाकर
दोनों जनों की पिंडियों पर फूल
उस सतकठवा खेत से तीन धूर जमीन
उत्सर्ग की जा चुकी है बूढ़े-बूढ़ी के नाम पर
मेरा विचार है, जल्द से जल्द
लिखा-पढ़ी भी हो ही जाय...

फिर मेरी नजरों को थाहता बोला सरजुग
फुसफुसाहट के स्वर में-
तरौनी गांव के बाबू-भैया सभी
हंसी उड़ाते हैं मेरी!
इस पर कहा मैंने सरजुग से-
धतू पगले, ऐसा भी कोई बोले!
पता नहीं है तुझे?
तरौनी गांव के बाबू-भैया लोग
हंसी उड़ाते हैं मेरी भी!

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