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Tuesday, November 16, 2010

जीने की कला

इसी शीर्षक का एक काव्य संकलन है त्रिलोचन जी का, जिसका प्रतिनिधित्व करती है यह कविता। जीवन, कला और दुनिया के बारे में बड़ी सहजता से बहुत कुछ कह जाती है यह कविता...

जीने की कला/त्रिलोचन
भूख और प्यास
आदमी से वह सब कराती है
जिसे संस्कृति कहा जाता है।

लिखना, पढ़ना, पहनना, ओढ़ना
मिलना, झगड़ना, चित्र बनाना, मूर्ति रचना
पशु पालना और उनसे काम लेना यही सारे
काम तो इतिहास हैं मनुष्य के सात द्वीपों और
नौ खंडों में।

आदमी जहां रहता है उसे देश कहता है। सारी
पृथ्वी बंट गई है अनगिनत देशों में। ये देश
अनेक
देशों का गुट बनाकर अन्य गुटों से अकसर
मार काट करते हैं।

आदमी को गौर से देखो। उसे सारी कलाएं, विज्ञान
तो आते हैं। जीने की कला उसे नहीं आती।

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