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Tuesday, September 21, 2010

यह हमशक्लों का समय है

हैरान-परेशान होने की जरूरत नहीं है। वाकई यह हमशक्लों का ही समय है। कैसे? यह बता रहे हैं कवि विनोद दास अपनी एक कविता में। इसे पढ़ने के बाद आप भी महसूस करेंगे- यह हमशक्लों का समय है...

हमशक्ल/ विनोद दास

वे दो विरोधी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि हैं

एक-दूसरे के साथ
वे रोज दांव खेलते हैं
और उन घरों में मुहरे बैठा देते हैं
जिधर से विरोधी भाग सकता है।
अगर एक किसी खास काट का कुर्ता पहनता है
तो दूसरा झट सफारी को तिलांजलि देकर
उसी काट का कुर्ता सिलवाता है

दूसरा ईजाद करता है कोई लोकप्रिय नारा
बिना किसी शर्म-संकोच
पहला उसे अपने घोषणा-पत्र में छाप देता है

बाजार में हमशक्ल पुर्जे ही नहीं बढ़े हैं
हमशक्ल मानवाकृतियां भी बढ़ी हैं
ब्यूटीपार्लर से निकलती दो लिपी-पुती स्त्रियां
लगभग एक जैसी लगती हैं

यह हमशक्लों का समय है

वे दोनों प्रतिनिधि एक जैसी कार में चलते हैं
उनके पीछे एक जैसे बाहुबली कार्यकर्ता रहते हैं
वे दोनों बहुराष्ट्रीय कंपनियों को न्यौता देने विदेश जाते हैं
उनकी भाषा में एक जैसे विशेषण होते हैं
उन दोनों के बीच अदृश्य समझौता है
सार्वजनिक मंचों पर सिर्फ
वे एक-दूसरे की तीखी आलोचना करते हैं
भगवतीचरण वर्मा की कहानी दो बांके की तरह।

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