साथ-साथ

Wednesday, September 1, 2010

अकेलेपन की आवाजें

सन्नाटे का भी शोर होता है, जो मन में गूंजता है और बहुधा असह्य होता है। अकेलेपन की आवाजें खुद को ही सुनाई पड़ती हैं, भले ही कोई दूसरा न सुन पाए...

आशा-निराशा/ तसलीमा नसरीन

इतना कुछ बजता है, शरीर के सारे रोयें-रेशे बज उठते हैं
बजता है तन-मन के आंगन में सात फेरे लगाकर नाचने वाला
अकेला नूपुर बजता है

भरी कलाई में बजते हैं चांदी के कंगन।
रूनझुन बजती हैं खिड़की के कांच पर आषाढ़ी वर्षा की बूंदें,
बादल से बादल खाते हैं रगड़ और बिजली बज उठती है।
तीन ताल में बजता है स्वप्न
भीतर घोर तांडव करती निस्संगता बजती है।

इतना कुछ बजता है
दरवाजे पर सिर्फ बजती नहीं स्थिर पड़ी एक कुंडी।

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