कविता में स्त्री की न जाने कितनी छवियां हैं। लेकिन पता नहीं कि वे स्वयं स्त्रियों को कितनी प्रिय-अप्रिय लगती हैं- बनावटी लगती हैं, खुशामदी या कि सचमुच जीवन के मर्म का उदूघाटन करने वाली। बहरहाल, एक कविता बद्रीनारायण की भी पढि.ए...
डरते-डरते
डरते-डरते मैंने जनम लिया
मेरे जनम पर नहीं बजीं बधाइयां
मुझे प्यार करना
मुझमें भोर की लाली
सांझ की हवा
मुझे प्यार करना
डरते-डरते मैंने पांच पार किए
डरते-डरते दस
डरते-डरते मैं बीस के दरवाजे पर खड़ी हूं
मुझे दगा मत देना
डरते-डरते मैं गुलदाउदी
डरते-डरते हजारा
मुझे संग ही रखना
डरते-डरते मैं बूढ़ी हो जाऊंगी
डरते-डरते मर जाऊंगी
मुझे-
डरते-डरते याद करना।
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