कवि बद्रीनारायण की एक अलग तरह की कविता। ठीक अलग तरह की भी नहीं, क्योंकि यहां भी उनका लोक स्वभाव कायम है। बात दिल्ली की है और इसमें व्यंग्य भी है और विडम्बना भी...
बाबू रामचंदर को एक चिढ़ावन/बद्रीनारायण
दिल्ली में रहता है सावन का महीना
हाय बाबू रामचंदर, तुम पोंछते हो पसीना
दिल्ली में रहती है फारस की हसीना
हाय बाबू रामचंदर, तेरा फट गया पश्मीना
पश्मीने में क्या अब भी लटकता है
लाल-लाल फुलेना
दिल्ली की सड़कों पर बिकता है पुदीना
न जाने, मेरे रामचंदर को
किसने बेचा-कीना
दिल्ली में सागर है, सागर से बढि.या मीना
हाय बाबू रामचंदर, तुम संभल-संभलकर पीना
कौन-कौन देखे तूने दिल्ली में सनीमा
और सब नग हैं, एक है नगीना
दिल्ली में खो गए, रामचंदर सिंह "फहिमा"
हाय बबुआ रामचंदर! हाय भइया रामचंदर!
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