साथ-साथ

Monday, June 28, 2010

एकल परिवारों में नहीं है वह

दादी मां... एकल परिवारों में कहां है? अब वह शायद स्मृति में हो या दूर-दराज के किसी गांव-कस्बे वाले पुश्तैनी घर के निचाट झुटपुटे वीराने में! रोजी-रोटी के लिए एक जगह से उखड़कर हम जहां रोप दिए जाते हैं, वह एक विस्थापन है, हालांकि बहुतेरे इसे स्थापित होना समझते हैं- दादी मां तो दूर जड़ों के पास बैठी इंतजार करती रहती है। पढि़ए, ओडिय़ा कवि सीताकांत महापात्र की पिघला देनेवाली यह कविता...
:: दादी मां ::
सीताकांत महापात्र

माचिस की डिबिया जैसी बस में
सलाइयों की तरह ठंसे लोग
ऊबड़-खाबड़ रास्ता, फिर महानदी तक डोंगी
झुके बादल, झिपझिप बारिश
कीड़ों-केंकड़ों से भरी संकरी मेड़
यह सब पार कर पहुंचने के समय
झुटपुटे का वक्त
वह कहती थी- ‘हमारे गांव में
यमराज तक पहुंचता है थोड़ी देर से’

सचमुच देर हो चुकी थी बहुत
खत्म हो गया था सारा कुछ
लोग तैयार कर चुके थे सरंजाम
हमारे कंधों पर, नदी के किनारे तक की
उसकी दूसरी लंबी यात्रा, शुरू होने को थी
उसके पहले बैलगाड़ी में आई थी नववधू
हल्दी में रंगी, मायके के गांव से
हमारे गांव तक

‘कगार का वृक्ष हो चली हूं बेटा
आते रहना बीच-बीच में
पता नहीं, फिर तुझे ·भी
देख भी पाऊंगी या नहीं’

कगार का वृक्ष
बह रहा था नदी की धार में
और उसे किसी शब्द की खोज न थी

बीचवाले कमरे में
सफेद चादर उठाकर मैंने देखा था,
इतिहास का चेहरा
आकाश की तरह सुनसान
मिट्ïटी की तरह निर्वाक्
खामोशी में फिर एक  गहरी सांस ली
रात को झींगुर-स्वर, बांस-वन में जुगनू
आकाश में चमकते कुछ नक्षत्र
श्मशान से लौटकर, सब जा चुके थे अपने-अपने घर
मटमैली गोबर लिपी दीवार पर, नाच रही थी परछाई
हमारी तरफ पीठ और दीवार की तरफ मुंह करके
रो रहे थे पिता
इसके पहले मैंने कभी देखा नहीं था उन्हें रोते हुए
उनसे क्या कहना
बाहर आकाश को ही देखने लगा
जहां, बन गई है वह एक और नक्षत्र
और उसी दिन जाना है
जीवन का सारा दुख
छिप-छिपकर ही रोना पड़ता है।

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