ओडिय़ा भाषा के विशिष्ट कवि सीताकांत महापात्र के बगैर आधुनिक भारतीय कविता का वृत्त पूरा नहीं होता। घोर अमानवीयता और क्रूरता के इस दौर में सीताकांत जी की करुणा देखिए उनकी कविता- एक भिखारी छोकरे की मौत- में। उनकी कविता का यह अनुवाद प्रभात त्रिपाठी ने किया है। यह कविता पढऩे के बाद किसी भिखारी बच्चे को आप नजरअंदाज नहीं कर सकते...
:: एक भिखारी छोकरे की मौत ::
सीताकांत महापात्र
सुबह वह नहीं था
नन्ही चिडिय़ा-सी उसकी देह
इत्मीनान से पड़ी थी
पब्लिक पार्क की नर्म घास पर
जीते समय इतना कोमल स्पर्श
उसे कभी किसी से नहीं मिला था
रात भर
कितने सारे तारे
उसे ताकते रहे थे
बुझती लौ की हताशा और ग्लानि को समझने
सिराते अभिमानिया शब्दों को
कम से कम एक बार सुनने के लिए
वह मगर चुप था
बुझती आंखों से आकाश के
करोड़ों दीपों को तकते हुए
बोलने की ताकत नहीं थी
इच्छा भी नहीं
इतनी बड़ी पृथ्वी के विरुद्ध
उसका, इत्ता-सा अभियोग भी नहीं था
चांद की कोमल किरन
बचपन में ही खो गई मां की तरह
उसे सहला रही थी
चमचमाती दुपैसी पंचपैसी-से तारे
पास ही खाली खोपड़ी की तरह लुढ़कते
उसके गीलट के डिब्बे में गिर रहे थे
बचपन से उस सहलाए जाने में
चंदा मामा के बारे में
हवा की लोरी सुनते-सुनते
एक अजानी अदेखी नींद उसे घेरने लगी थी
सुबह वह नहीं था,
सुबह नहीं थी।
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