असहमति और प्रतिरोध का अपना-अपना तरीका होता है। कोई जरूरी नहीं कि बहुत जोर से तल्खी के साथ कही गई बात असर भी उतना ही डाले। इसके बजाय पुरुष वर्चस्व पर जोर का झटका धीरे-से देनेवाली परवीन शाकिर की इस कविता को उदाहरण बना सकते हैं...
:: निक नेम ::
परवीन शाकिर
तुम मुझको गुडिय़ा कहते हो
ठीक ही कहते हो
खेलने वाले सब हाथों को
मैं गुडिय़ा ही लगती हूं
जो पहना दो, मुझपे सजेगा
मेरा कोई रंग नहीं
जिस बच्चे के हाथ थमा दो
मेरी किसी से जंग नहीं
सोती-जागती आंखें मेरी
जब चाहे बीनाई (नजर) ले लो
कूक भरो और बातें सुन लो
या मेरी गोइयां ले लो
मांग भरो सिन्दूर लगाओ
प्यार करो आंखों में बसाओ
और फिर
जब दिल भर जाए तो
दिल से उठा के ताक पे रख दो
तुम मुझको गुडिय़ा कहते हो
ठीक ही कहते हो
चर्चा-ए-ब्लॉगवाणी
ReplyDeleteबड़ी दूर तक गया।
लगता है जैसे अपना
कोई छूट सा गया।
कल 'ख्वाहिशे ऐसी' ने
ख्वाहिश छीन ली सबकी।
लेख मेरा हॉट होगा
दे दूंगा सबको पटकी।
सपना हमारा आज
फिर यह टूट गया है।
उदास हैं हम
मौका हमसे छूट गया है..........
पूरी हास्य-कविता पढने के लिए निम्न लिंक पर चटका लगाएं:
http://premras.blogspot.com