हर कवि को यह हक है कि वह भाषा में और अपनी कविता में थोड़ा खेले भी। बशर्ते वह खिलवाड़ न हो, बल्कि कविता में कुछ गहरे अर्थ और आशय वह उपस्थित कर सके। तभी कवि के खेलने की सार्थकता है। उदाहरण के लिए कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी की यह कविता। इसके लिखे जाने का वर्ष ही नहीं, वक्त भी बताया है कवि ने-
1 नवम्बर, 1994 और दोपहर 3.30 बजे।
पास / अशोक वाजपेयी
पत्थर के पास था वृक्ष
वृक्ष के पास थी झाड़ी
झाड़ी के पास थी घास
घास के पास थी धरती
धरती के पास थी ऊंची चटूटान
चटूटान के पास था किले का बुर्ज
बुर्ज के पास था आकाश
आकाश के पास था शून्य
शून्य के पास था अनहद नाद
नाद के पास था शब्द
शब्द के पास था पत्थर
सब एक-दूसरे के पास थे
पर किसी के पास समय नहीं था।
sundar bahut sundar...
ReplyDeleteवाह....बहुत खूबसूरती से ये आस पास की बात कही..पर वक्त नहीं है...
ReplyDeleteबेहद सार्थक रचना।
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना !!
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
ReplyDeleteढेर सारी शुभकामनायें.