आज फिर अशोक वाजपेयी की ही कविता। साल 1994 की। देर हो जाने की नियति या देर हो जाने के दुख के साथ। पढ़नेवाले को संजीदा कर देती है यह कविता।
० देर हो जाएगी/अशोक वाजपेयी ०
देर हो जाएगी-
बंद हो जाएगी समय से कुछ मिनिट पहले ही
उम्मीद की खिड़की
यह कहकर कि गाड़ी में अब कोई सीट खाली नहीं।
देर हो जाएगी
कड़ी धूप और लू के थपेड़ों से राहत पाने के लिए
किसी अनजानी परछी में जगह पाने में,
एक प्राचीन कवि के पद्य में नहीं
स्वप्न में उमगे रूपक को पकड़ने में,
हरे वृक्ष की छांह में प्यास से दम तोड़ती चिड़िया तक
पानी ले जाने में
देर हो जाएगी-
घूरे पर पड़े
सपनों स्मृतियों इतिहास के चिथड़ों को नबेरने
पड़ोसी के आंगन में अकस्मातू गिर पड़ी
बालगेंद को वापस लाने,
यातना की सार्वजनिक छवियों में दबे निजी सच को जानने,
आत्मा के घुप्प दुर्ग में एक मोमबत्ती जलाकर खोजने
सबमें देर हो जाएगी-
देर हो जाएगी पहचान में
देर हो जाएगी स्वीकार में
देर हो जाएगी अवसान में।
bahut sahi baat kahi sir ...sundar kavita...
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