अशोक वाजपेयी की कविता के कई रंग हैं। उनके पास अपनी काव्यभाषा और अपना मुहावरा है। उनमें मूर्तन-अमूर्तन की लुकाछिपी, सूक्ष्म को स्थूल-स्थूल को सूक्ष्म तथा प्रत्यक्ष को अप्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष बनाकर कविता में उपस्थित करने की असाधारण योग्यता है। पढि.ए यह कविता-
:: उम्मीद चुनती है " शायद " ::
उम्मीद चुनती है अपने लिए एक छोटा-सा शब्द
शायद-
जब लगता है कि आधी रात को
दरवाजे पर दस्तक देगा वर्दीधारी
किसी न किए गए जुर्म के लिए लेने तलाशी
तब अंधेरे में पालतू बिल्ली की तरह
कोने में दुबकी रहती है उम्मीद
यह सोचते हुए कि बाहर सिर्फ हवा हो
शायद।
फूलों से दबे संदिग्ध देवता के सामने हो रही
कनफोड़ आरती, कीर्तन
और घी-तेल की चीकट गंध में
किसी भुला दिए गए मंत्र की तरह
सुगबुगाती है उम्मीद
कि शायद आपके नैवेद्य और चिपचिपाती भक्ति के नीचे
रखी रह गई हो थोड़ी-सी सच्ची भक्ति
जब लगता है कि भीड़भाड़ भरी सड़क पर
सामने से बेतहाशा तेज आ रहा बेरहम ट्रक
कुचलकर चला जाएगा
उस न-जाने कहां से आ गई बच्ची को
तभी उम्मीद
किसी खूसट बुढि.या की तरह
न-जाने कहां से झपटकर
उसे उठा ले जाएगी
नियति और दुर्घटना की सजी-धजी दुकानों के सामान को
तितर-बितर करते हुए।
शायद एक शब्द है
जो बचपन में बकौली के नीचे खेलते हुए
अकस्मात झरा था फूल की तरह-
शायद एक पत्थर जो खींचकर किसी ने मारा था
परीक्षा में अच्छे नंबर न पाने की उदासी पर-
शायद एक खिड़की है जिससे देखा था
धूमिल होती जाती प्रियछवि को
शायद एक अनजली अस्थि है
जिसे मित्रशव को फूंकने के बाद
हम वहीं भूल गए
जहां चिता थी
और जिसे आजतक किसी नदी में सिरा नहीं पाए हैं।
उम्मीद ने चुना है
एक छोटा-सा पथहारा शब्द
"शायद" ।
पुरुष की आंख कपड़ा माफिक है मेरे जिस्म पर http://pulkitpalak.blogspot.com/2010/05/blog-post_9338.html मेरी नई पोस्ट प्रकाशित हो चुकी है। स्वागत है उनका भी जो मेरे तेवर से खफा हैं
ReplyDeleteकाबिल-ए-तारीफ
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