साथ-साथ

Wednesday, April 14, 2010

॥ रोज रोज की गरीबी॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : पांच)

रोज रोज की गरीबी कहो या नींद का मरण
मैं कबतक और कितनी इसकी चिंता में रहूं!
रोज रोज की झंझट कहो या जी का जंजाल
कितनी बार ओझा के दरवाजे दौड़ लगाऊं।

ओह, कबतक इन सबकी चिंता में जलूं?
घर की सारी भेड़-बकरियां
बेच-खाकर खत्म हो गईं
हाय, कितनी बार दौड़ूं ओझा के पास
घर के सब मुर्गी-चूजे बिला गए।

1 comment:

  1. अच्‍छी अच्‍छी कविताओं का संग्रह कर रहे हैं आप .. सुंदर प्रयास !!

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