साथ-साथ

Saturday, April 10, 2010

यहां से देखिए झारखंड को

अरविंद चतुर्वेद :
अपने जन्मकाल से ही अस्थिरता, उथलपुथल और राजनीतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचार का शिकार होते आ रहे झारखंड को सिर्फ माओवादियों या शिबू सोरेन की सरकार के चश्मे से देखने से जनजीवन का मर्म नहीं समझा जा सकता। आइए, आज से आपको मुंडारी भाषा के कुछ लोकगीतों का हिंदी काव्यांतर पढ़वाते हैं। प्रमुख जनजातियों में एक मुंडा आदिवासियों की मुंडारी भाषा में लोकगीतों और लोककथाओं का खजाना भरा पड़ा है। मुंडारी लोकगीत यानी मुंडा जाति का जीवन-काव्य। दुख-सुख, उल्लास-विषाद के साथ ही उनकी संघर्ष निर्मित सौन्दर्य चेतना इन गीतों में देखी जा सकती है। मुंडाओं की रागात्मकता इस लोक-काव्य में इतनी गहरी है कि जीवन-राग और प्रकृति-राग को अलगाया नहीं जा सकता। परिवेशगत स्थितियों और जीवनानुभव से मिली एक आलोचनात्मक दृष्टि और वनस्पतियों को संबोधित करते हुए या फिर उन्हें आलंबन बनाकर यहां हृदय का भाव व्यक्त किया गया है। मुंडारी लोकगीतों की प्रश्नोत्तर शैली और संवादपरकता भी विशेष लक्ष्य करने की चीज है। इन लोकगीतों को मंगल सिंह मुंडा ने उपलब्ध कराया था और उनके सहयोग से ही मैंने काव्यांतर किया है। आज पढि.ए यह गीत-

॥ खाली आंचल, खाली टोकरी॥
नदी के तीरे-तीरे
या कि नाले के आसपास
कौन आवाज दे रहा है,
किसके होने की आहट आ रही है!

अरे, शायद साग खोंटने वाली औरतें हों
या होंगे मछली मारने वाले,
वे ही आवाज दे रही हैं
उन्हीं के होने की आहट आ रही है।

अरे नहीं, वे साग भी नहीं खोंट पायीं
वे मछली भी कहां पकड़ पाए-
मगर उन्हीं की आवाज आ रही है
उन्हीं के होने की आहट आ रही है।

हाय, उनके आंचल खाली हैं
हाय, उनकी टोकरियां खाली हैं
जो आवाज दे रही हैं,
जिनके होने की आहट आ रही है।

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