बहती रहे हुगली
ऐसे ही
लहरें उठाती
लहरें गिराती
बहती रहे प्राणधारा की तरह
दुःख के दोनों छोर तक
तना हुआ है हावड़ा पुल
थरथराता हुआ
कितनी ठोकर खाकर भी
देखो, आदमी जाता है आदमी की तरफ
कितनी भटकन के बाद भी
पंछी मिलकर बनाते हैं झुण्ड
रात का गाढ़ा पर्दा उठा कर
चाँद धोता है अपना मलिन मुख
सारा पछतावा पोंछ कर
मेरे भीतर गिरता - उठता है जीवन राग
बहती रहे
ऐसे ही
लहरें उठाती
लहरें गिराती,
बना रहे यात्रा का अनंत प्रवाह
मेरी लय में बची रहे थोड़ी - सी आह
प्राणधारा की तरह बहती रहे हुगली !
बेहतरीन रचना...हुगली को समर्पित!
ReplyDeleteप्राणधारा की तरह बहती रहे हुगली
ReplyDeleteहुगली से जुडाव को दिखाती है
कविता पढ़ते दृश्यांकन होने को आता है
आपकी कलम भी यूँ ही चलती रहे
बेहतरीन रचना
ReplyDelete