साथ-साथ

Friday, December 18, 2009

शहर एक दुहस्वप्न

जब मैं नहीं था

कहाँ था शहर !

इस तरह तो नहीं था

मैं हूँ शहर में

और मेरे भीतर धंसा है शहर

मेरे जेहन में

मेरे लहू में

मेरी साँस में

कूट - कूटकर भर गया है

बाईं पटरी पर चप्पल घसीटता

चौराहे पर ठिठका

हडबडी में रास्ता पार करता

बेतहाशा दौड़ता - भागता - हांफता

पसीने से लथपथ

धक्के खाता शहर

जब मैं नहीं था

कहाँ था !

आमसभा में भकुआया

भाषण सुनता

मूगंफली टूंगता

तालियाँ पीटता

जुलूस में चिन्चियाता

दफ्तर में देर से पहुंचकर

अफसर की डाट खाता

सर झुकाए सारी सर बोलता

मिमियाता कहाँ था शहर

जब मैं नहीं था ...

जब मैं नहीं था

सड़क पर ऐसी ही रोशनी थी

और पार्क में ऐसा ही अन्धेरा ?

क्या पता !

सिनेमाघर में ऐसी ही फुसफुसाहट थी

बगल की कुर्सी पर - अंधेरे में ?

क्या पता !

जब मैं नहीं था शहर में

जेब भी कहाँ कटी थी इस तरह !

इतना तो मैं डरता नहीं था कभी

सच बोलने में

बेपरदा होने का डर कहाँ था

जब मैं नहीं था शहर में !

इतनी उमस नहीं थी

जब मैं नहीं था

मच्छरदानी के नीचे

इस तरह भागती नहीं थी नींद

जैसे भागती है मच्छरदानी से छन कर ।

दुह्स्वप्नों के पहाड़ का बोझ लिए

छाती की पसलियों को चरमराता

दबोचता है शहर -

एक राक्षस का पंजा कसता है गले पर

ऐसे तो हडबडाकर

बीच में नहीं टूटती थी नींद !

भोर के सपनों को

तेज धार वाली सीटी से चीरती

धडधडाती गुजर जाती है ट्रेन

इसी ने तो ला पटका था मुझे यहाँ

फिर कहाँ आती है नींद !

...........

शहर तो था ही

जब मैं नहीं था

कैसा था मगर

कोई नहीं जानता -

सब जानते हैं सिर्फ़ अपना -अपना शहर

शहर सबका कहाँ होता है -

अपने - अपने सपने की तरह

शहर का अपना - अपना बोझ होता है

शहर की अपनी - अपनी छाया ,

कौन भाग पाता है शहर से भला अपना पीछा छुडाकर

अपने सपनों का बोझ कौन उतार पाता है !

क्या आपके कंधे

मेरी ही तरह

दुखने लगे हैं ?

मेरे सपने यहीं दफन हैं

यही है मेरे सपनों की कब्रगाह

अभी-अभी टूटी है नींद

अभी-अभी उठा है मेरी छाती से

दुह्स्वप्नों के पहाड़ वाला भीमकाय राक्षस

यही मौका है

अंधेरे के बावजूद

दुबारा सवार हो

वह मेरी छाती पर

इससे पहले मुझे बिस्तर छोड़

उठ ही जाना होगा ,

मुझे खोद डालनी है

सपनों की यह कब्रगाह

यहीं दफन हो गए हैं सारे लोकगीत ।

यह कैसी आहट है अंधेरे में -

क्या और भी कुदालें चल रहीं हैं ?

मुझे खोदते ही चले जाना है

बेकार है इन्तजार

सुबह के होने का !

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