एक अपाहिज घसीटता चलता है शहर
समूचा दिन - सुबह-शाम - रोज-ब-रोज
पहाड़-सा ढोता है
महीना और साल,
बाघनख-सा उधेड़ देती है तारीख
उसकी दिनचर्या
आंखों के सामने
चिमनी का धुंधलका
छा जाता है ।
दर्द-सा उठती है ऊंची मीनार
वह गांठता है तार-तार
अपना अस्तित्व
मगर सुई से धागा
बार-बार निकल जाता है ।
तब भी कुछ लोग
पतंग-सा उड़ाते हैं
हाथों में डोर थामे,
वे बुनते हैं
स्वेटर-सा रंग-बिरंगा मौसम
उनके लिए
समय और आइसक्रीम
दोनों एक जैसे हैं ।
जिनके लिए
ठण्ड कारोबार है
बरसात है सीजन
और गरमी -
धुप में चिलचिलाते किसी नुक्कड़ पर
गुमटी के घड़े में भरे ठंडे पानी का धर्मादा
उनके लिए
मौसम की कविता
मुनाफे की चीज भला कैसे हो सकती है !
कविता मुनाफे की चीज भला कैसे हो सकती है ना ही इसे इस नजरिये से देखा जाना चाहिये।
ReplyDeleteसुन्दर व सटीक !
ReplyDeleteघुघूती बासूती
सुंदर चित्रण।
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जिसपर हमको है नाज़, उसका जन्मदिवस है आज।
कोमा में पडी़ बलात्कार पीडिता को चाहिए मृत्यु का अधिकार।