साथ-साथ

Friday, December 18, 2009

मौसम और सीजन

एक अपाहिज घसीटता चलता है शहर

समूचा दिन - सुबह-शाम - रोज-ब-रोज

पहाड़-सा ढोता है

महीना और साल,

बाघनख-सा उधेड़ देती है तारीख

उसकी दिनचर्या

आंखों के सामने

चिमनी का धुंधलका

छा जाता है ।

दर्द-सा उठती है ऊंची मीनार

वह गांठता है तार-तार

अपना अस्तित्व

मगर सुई से धागा

बार-बार निकल जाता है ।

तब भी कुछ लोग

पतंग-सा उड़ाते हैं

हाथों में डोर थामे,

वे बुनते हैं

स्वेटर-सा रंग-बिरंगा मौसम

उनके लिए

समय और आइसक्रीम

दोनों एक जैसे हैं ।

जिनके लिए

ठण्ड कारोबार है

बरसात है सीजन

और गरमी -

धुप में चिलचिलाते किसी नुक्कड़ पर

गुमटी के घड़े में भरे ठंडे पानी का धर्मादा

उनके लिए

मौसम की कविता

मुनाफे की चीज भला कैसे हो सकती है !

3 comments:

  1. कविता मुनाफे की चीज भला कैसे हो सकती है ना ही इसे इस नजरि‍ये से देखा जाना चाहि‍ये।

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  2. सुन्दर व सटीक !
    घुघूती बासूती

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