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Friday, December 11, 2009

पेड़ बरगद का

कहते हैं, बरगद के पेड़ के नीचे कुछ नहीं पनपता !

किसी भी बात पर वह कुछ नहीं कहता

अजब खामोश रहता है

मुझे वह पेड़ बरगद का

असल मनहूस लगता है ।

गाँव में सूखा पडा था

झुलसते थे पेड़ सारे

और धरती आह भरती थी

सूरज इस तरह तपता

की सारे रास्ते भी तप रहे थे

धुप के मारे

चूल्हा पड़ा रहता था उदास

माँ की छलछलाई आँख रहती थी

मगर वह पेड़ बरगद का

कभी भी कुछ नहीं बोला

ज़रा-सा भी नहीं डोला

अजब खामोश रहता है !

वह भी क्या बरसात थी

की एन मौके पर मरा था बैल दादा का

और दादी हुड़क-हुड़क कर खूब रोई थी

बादलों की मार ऐसी थी

की सारे बह गए छप्पर

सारा गाँव अपनी जान लेकर

दूर भागा था

मगर सर पर काले कौवों का लिए जमघट

बाढ़ के पानी में गर्दन तक गया था डूब

और तब भी पेड़ बरगद का रहा चुपचाप

अजब खामोश रहता है !

रातभर बुखार में

भोलू का तपता हुआ तन

दमे की खांसी रातभर काका की

रातभर आंखों में धुंआ हुई जाती

जागती काकी -

की जल्दी से सुबह हो जाय

इन बीमार रातों की

की इन नाउम्मीद सपनों की

कभी तो सुबह हो जाय -

कर्ज उतरे

बीमारियों से पिंड छूटे

झोपड़ी पर नया छप्पर चढ़ जाय

भोलू की बहू आ जाय

और दो बैल खूटे पर बंधे हों

झोपड़ी के पास,

- ये सपने

महज इतने

कभी पूरे हों

की इन नाउम्मीद सपनों की

कभी तो सुबह हो जाय !

भोलू ,

रात को तू उस मनहूस बरगद की ओर

तो नहीं गया था ?

मत जाना,

अँधेरी रात में गुमसुम

उस पेड़ में

बहुत पुराना भूत रहता है ।

न जाने कितने

बाढ़ - सूखा, बुखार - दमा

भूख और कर्ज और मौत

आए - गए

मगर वह पेड़ बरगद का

ज़रा-सा भी नहीं खडका

अंधेरे में

बहुत गुमसुम, बहुत चुपचाप

पड़ा है इस तरह

तेरे जनम के भी आठ जनम पहले से

मौसम से उसका हजार समझौता है

गाँव की पगडण्डी से

आदमी से , बैल से

बच्चों से , परिंदों से

बाढ़ से , सूखा से

भूख से , बीमारी से

अपनों से , सपनों से

उसका कोई नाता नहीं

गुमसुम चुपचाप ऐसा की

सारा गाँव चीख-चीख कर मर जाय

तब भी वह कुछ नहीं बोलेगा

ज़रा - सा भी नहीं डोलेगा

किसी भी बात पर वह कुछ नहीं कहता

अजब खामोश रहता है

मुझे क्या , सभी को वह पेड़ बरगद का

असल मनहूस लगता है ।

4 comments:

  1. बहुत अच्छी रचना है।बहुत अच्छे भाव हैं। बधाई।

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  2. sir kya khub lekhani chalate hai padha kar dil bag bag ho jata hai realy

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