साथ-साथ

Saturday, December 5, 2009

बिना छत का शहर

यार भी हैं लोग भी

चौरास्ते हैं और घर

क्या बात है की नहीं लगता

मुझे ये अपना शहर ।

मैंने सुना था ये शहर

है शरीफ लोगों का

कहते हैं मगर लोग

सुनो, है बड़ा बदनाम शहर ।

लोग कहते हैं मुसाफिर

बड़ा अनजान है तू

रोशनी की चाह छोड़

चलो उससे संभल कर ।

ताजुब है एक शानदार

इमारत की बगल में

बैठे हैं यहाँ छिपे हुए

कई - कई खँडहर ।

शुक्र कीजै की आसमान से

पत्थर नहीं बरसे

वरना किस हाल में होता

ये बिना छत का शहर !

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर शब्द और अत्यंत सुन्दर भाव...वाह...अद्भुत रचना रच डाली है आपने

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