मैं कहाँ जाऊं आख़िर !
इस शहर में फैल गयी है बीमारी
और उत्तर के कसबे में
रात - दिन हो रही हैं हत्याएं
पूरब की तरफ़ भी नहीं जा सकता
हफ्ते भर से वहाँ लगा है कर्फ्यू
अगर पच्छिम की बस्ती में जाता हूँ
तो हलाक कर दिया जाऊंगा ।
आख़िर कहाँ जाऊं मैं ?
मेरा नाम इश्वर नहीं है
न कोई मुझे खुदा पुकारता है
मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान
कोई फर्क नहीं पड़ता
हर तरफ़ तो मची है मार - काट
इश्वर और खुदा में ।
मैं कैसे रहूँ इस काशी में - अयोध्या में
कोई भी कैसे रह सकता है
बचकर इस काबे में
कुत्ते की मौत मरने से पहले
मैं भरपेट खा लेना चाहता हूँ
ढाबे में ।
मैं कैसे बच सकता हूँ
रोज़ - रोज़ की तकरार से
हत्यारे इस तरह मार रहे हैं - प्यार से
की मैं अपना सर तोड़ रहा हूँ
नफ़रत की दीवार से ।
मैं कहाँ जा सकता हूँ आख़िर
आख़िर कोई भी कहाँ जा सकता है
निरोग रहने के लिए !
( सन्दर्भ ६ दिसंबर )
एक सधी ले में आपने
ReplyDeleteअपनी बात सीधे सीधे रख दी ........
बात-चीत के अंदाज में ,,,,,, और कविता बनती चली गयी ...........
अच्छी कविता ,,,,,,,,,,,,,,, बधाई ...............................................