टूटकर गिरी नहीं छत
टूटकर गिरा सिर्फ़ भरोसा
झरे नहीं दीवार के पलस्तर
भरभराकर झर गए इरादे
दरवाजे भी सब दुरुस्त
और खिड़कियों का कांच भी नहीं चटखा
फिर कहाँ बिला गईं उम्मीदें !
किसकी साँसों में भरी है इतनी सीलन
की बासठ बरस में
एक दहकते सच पर
जम गयी फफूंद
कहाँ है रोशनदान
इस अँधेरा उगलती इमारत में
किसने बना दिया इसको
झूठ का एक फरेबी तिलिस्म
इसकी दीवारों से टकराकर
लौटती है प्रश्नों की प्रतिध्वनि
नहीं आता कोई जवाब
वे कौन हैं जो चैन से सोते हैं इसमें
और देखते हैं ख्वाब लाजवाब !
ऐसा ही कुछ हमने कभी लिखा था-
ReplyDeleteये अजीब से इक मकान की बात है
जिसके रोशनदानों में कबूतर नहीं, अंधेरे रहते थे
लाजबाब रचना!!
ReplyDeleteकिसकी साँसों में भरी है इतनी सीलन
ReplyDeleteकी बासठ बरस में
एक दहकते सच पर
जम गयी फफूंद
शैतानी इरादे वाले हैं कुछ शख्स, जिन्हें खून चाहिए।