साथ-साथ

Sunday, November 15, 2009

यह इमारत

टूटकर गिरी नहीं छत

टूटकर गिरा सिर्फ़ भरोसा

झरे नहीं दीवार के पलस्तर

भरभराकर झर गए इरादे

दरवाजे भी सब दुरुस्त

और खिड़कियों का कांच भी नहीं चटखा

फिर कहाँ बिला गईं उम्मीदें !

किसकी साँसों में भरी है इतनी सीलन

की बासठ बरस में

एक दहकते सच पर

जम गयी फफूंद

कहाँ है रोशनदान

इस अँधेरा उगलती इमारत में

किसने बना दिया इसको

झूठ का एक फरेबी तिलिस्म

इसकी दीवारों से टकराकर

लौटती है प्रश्नों की प्रतिध्वनि

नहीं आता कोई जवाब

वे कौन हैं जो चैन से सोते हैं इसमें

और देखते हैं ख्वाब लाजवाब !

3 comments:

  1. ऐसा ही कुछ हमने कभी लि‍खा था-
    ये अजीब से इक मकान की बात है

    जि‍सके रोशनदानों में कबूतर नहीं, अंधेरे रहते थे

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  2. किसकी साँसों में भरी है इतनी सीलन

    की बासठ बरस में

    एक दहकते सच पर

    जम गयी फफूंद
    शैतानी इरादे वाले हैं कुछ शख्स, जिन्हें खून चाहिए।

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