बचपन में एक नदी थी / पहाडी - पथरीली
दूर पहाड़ से उतर कर आती थी / जंगल के किनारे - किनारे
आसपास के गावों - डबरों में झांकती हुई
ढोर - डगारों ko पानी पिलाती / पता नहीं
कहाँ चली जाती थी / आरपार जाते हुए
उसकी काई लगी चट्टानों पर बचकर चलना पड़ता था
फिसलकर गिरने से / वरना डूबने का डर तो बिल्कुल नहीं था
वह छोटी नदी थी
जैसे नदी न हो - नदी का कोई बच्चा हो !
हमें ठीक - ठीक पता नहीं था / कहाँ से आती थी वह
और हमारे गाँव से होकर कहाँ चली जाती थी
एक बार हम कुछ बच्चे / बहुत दूर तक
गए थे नदी के साथ - साथ / पता लगाने की
कहाँ तक जाती है वह
तभी रास्ते में मिल गए थे हमारे स्कूल मास्टर
और वे हमें वापस गाँव ले आए थे
हम उसे अपने गाँव की नदी समझते थे - अपनी नदी
और पड़ोसी गाँव के बच्चों से स्कूल में झगड़ते थे
की वह हमारी ही नदी है / जो उनके गाँव भी जाती है
और फिर उनके गाँव से भी आगे पता नहीं कितनी दूर
लेकिन है वह हमारी ही नदी
नदी को क्या पता की उसके लिए स्कूल में हम कितना झगड़ते थे !
नदी का साथ बचपन तक था / और छुट्टियों में फिर
अपने हिस्से कभी - कभी तालाब में / डूबकी लगाने के दिन भी थे कुछ
कुँए में रस्सी तुडाकर जा छिपी बाल्टी को / कांटे से कान पकड़ कर
निकालने के चंद दुर्लभ दिनों की याद के सिवा
लेकिन अब क्या है जिंदगी के रेगिस्तान में !
बड़े पुरुषार्थ से कमाए गए / बाथरूम के नल के नीचे
अब जो कुछ भी है
महज भीगती हुई देंह है
और साबुन के झाग में लिपटी हुई शर्म
और तसल्ली के लिए / दुनियादारी से उपजा
बहुत सहेजा - सम्भाला हुआ / वही एक मुहावरा
की सबकी तरह / हमाम में मैं भी नंगा हूँ ।
हमाम से सीधे निकल कर / हममे से कोई एक
नक्शा बनाता है नदी पर बाँध का
जिसकी नहर में डूब जाता है बचपन / और
बाढ़ में दर्जन भर गाँव ।
हमाम में हम / फिर नंगे हो जाते हैं
हमाम के लिए हम कभी नहीं लड़ते
जैसे झगड़ते थे स्कूल में नदी के लिए !
बहुत उम्दा। अब कुछ बाकी है तो हमाम और सब नंगे। बांध में बहती भावनाएं और डूबते दर्जन भर गांव। अब नहीं नदी और उसके किनारे, लुकाछुपी खेलते और सारे दिन डुबकियां मारते बच्चे। सर्दी लगी तो तपते सूखे रेत में लोट लिए, और जब फिर गर्मी लगी तो धारा में जा लोटे। हम नदी के गर्म खून वाले मगरमच्छ थे और आज मगरमच्छ भी ठंडे पड़ गए हैं। नलके की नीचे मुंह बा कर पानी ढाला और रिफ्रेश हो जाते हैं। नदी आज भी वहीं है, बहना ना बहना हालात की बात है, मेरी वाली तो बहती है, लेकिन कोई बचपन उसके किनारों पर नहीं खेलता। सब समझदार हो गए हैं, क्रिकेट खेलते हैं, निखर्चे खेलों की तो कब की मौत हो गई। हमारे पहली वाली पीढ़ियों की वर्तमान, 'घटिया', विरासत को हम अपनी पीढी से आगे नहीं ले जा सके।
ReplyDeleteबन्धुवर वाह वाह !
ReplyDeleteबड़ी लम्बी यात्रा करादी आपने...........
इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद !