सौ झोपड़ के बीच में पक्की इक दालान ।
इनके हिस्से कुछ नहीं उसका हिन्दुस्तान ॥
उनकी सोहरत यूँ हुई जैसे गंध कपूर ।
आंखों को कुछ ना दिखे दिल्ली में मशहूर ॥
बस्ती - बस्ती धुंआ है जंगल - जंगल आग ।
दिल्ली में दरबार है हरा - भरा है बाग़ ॥
यह पहाड़ का आदमी देख रहा है खेल ।
सारे जग को रोशनी इसे दिया - ना तेल ॥
साहब तेरी साहबी जैसे पेड़ बबूल ।
हमको छाया क्या मिले गड़े जिया में शूल ॥
बस्तर की बस्ती कहे एक रंग है लाल ।
वही खून का रंग है ऐ मालिक भोपाल ॥
का सम्पादकजी ! एक ही दिन में चाँप दिए । धीरे - धीरे । ज्यादातर लोगों को सिर्फ़ ऊपर वाली प्रविष्टी दिखेगी और इतनी सुन्दर कविताओं को पाठक नहीं पढ़ पाएंगे । सप्रेम
ReplyDeleteबहुत बढ़िया जनाब!!
ReplyDeleteबहुतेन बढ़िया !!
ReplyDeleteपर अफलू जी की सलाह के अनुसार हर दो दिन में ही पोस्ट तांगा करें भाई!!!
और हाँ यह वर्ड वेरीफिकेसन हटा लें ....नहीं तो लगन का कष्ट रहेगा और आपको लोगन का अकाल!!!!
ReplyDeleteइसको हटाने के लिए blog settings में जाए और वर्ड वेरिफिकेसन वाले आप्शन में NO कर दें!!
लगन=लोगन
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद,
ReplyDeleteमैं ‘जनपद’ पर गया ,अरविंद जी की कविताई देखी, लगा अपने गाव में ही आ गया हूँ. बहुत देर तक वहीं रहा, अवधी के वे शब्द जो मेरे गाव के ही हैं लेकिन अब बाकायदा हिन्दी बन गए हैं, वहां मिले . कुछ देर बाद ऐसा लगा कि जैसे मेरे बचपन के कई साथी भी वहां मौजूद हैं. .कविता की शक्ति का जो अहसास आज मुझे हुआ है , उसे मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा. आपका आभारी हूँ जो आपने मुझे वहां जाने की प्रेरणा दी. मेरी जैसी संवेदना वाले आदमी के लिए, अरविंद चतुर्वेद बहुत बड़े कवि हैं .
और…आज बहुत दिन बाद पं ब्रज नारायण ‘चकबस्त’ को फिर पढने का मौक़ा मिला, वहीं जनपद में .. भाई मज़ा आ गया.