साथ-साथ

Tuesday, November 24, 2009

कविता लिखूंगा

मैं कविता लिखूंगा

मरहम के लिए - चोट के लिए

हाड तोड़ मेहनत के बाद भी

रह गयी कचोट के लिए ।

कविता में पहाड़ों की छाती सहलाऊंगा

धुप में झुलसते दरख्तों को

ठंडे पानी से नहलाऊँगा,

मैं जानता हूँ

मेरे काँटा चुभने पर

कविता ही चीखेगी

मेरे ठिठुरते मन को

धुप - सी दीखेगी ।

फिर भी आपसे इतनी मोहलत चाहता हूँ

मौसम बदलने की बात पर

सहमत होने के पहले

मैं जंगल की तरफ़ देखूंगा

बार - बार कविता में

आदमी - आदमी - आदमी लिखूंगा

मगर भूख लगने के वक्त

आदमी अनाज मांगेगा

उसे कविता नहीं चाहिए

रोटी पकाने के लिए

आग ही जलेगी

आग जलने से

आपको चोंकना नहीं चाहिए !

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर कविता है शुभकामनायें

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  2. बहुत सुन्दर भाव!!

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  3. चूल्हे की आग की चमक आलग होती है। सांझ को गांव के सीमाने पर धुंए की चादर तन जात है, लेकिन अब तो राजनीतिक रोटियां पकाने के लिए सांप्रदायिक आग ज्यादा जलती है इसलिए चौंक पड़ते हैं।

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