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Friday, July 1, 2011

मैं बादल, मेरे अंदर कितने ही बादल घुमड़ रहे हैं

महाकवि कालिदास के अमर काव्य मेघदूत से प्रेरित कई कविताएं हिंदी में लिखी गई हैं- बाबा नागार्जुन से लेकर श्रीकांत वर्मा तक। 1957 में छपे कवि श्रीकांत वर्मा के पहले कविता संग्रह भटका मेघ की इसी शीर्षक वाली कविता यहां प्रस्तुत है-

भटका मेघ/श्रीकांत वर्मा

भट· गया हूं-
मैं असाढ़ का पहला बादल!
श्वेत फूल-सी अलका की
मैं पंखुरियां तक छू न सका हूं।
किसी शाप से शप्त हुआ
दिग्भ्रमित हुआ हूं।
शताब्दियों के अंतराल में घुमड़ रहा हूं, घूम रहा हूं।
कालिदास, मैं भटक गया हूं,
मोती के कमलों पर बैठी
अलका का पथ भूल गया हूं।
मेरी पलकों में अलका के सपने जैसे डूब गए हैं।
मुझमें बिजली बन आदेश तुम्हारा
अब तक कड़क रहा है।
आंसू धुला रामगिरि काले हाथी जैसा मुझे याद है।
लेकिन मैं निरपेक्ष नहीं, निरपेक्ष नहीं हूं।
मुझे मालवा के कछार से
साथ उड़ाती हुई हवाएं
कहां न जाने छोड़ गई हैं!
अगर कहीं अलका बादल बन सकती
मैं अलका बन सकता!
मुझे मालवा के कछार से
साथ उड़ाती हुई हवाएं
उज्जयिनी में पलभर जैसे
ठिठक गई थीं, ठहर गई थीं
क्षिप्रा की वह क्षीण धार छू
सिहर गई थीं।
मैंने अपने स्वागत में तब कितने हाथ जुड़े पाए थे।
मध्य मालवा, मध्य देश में
कितने खेत पड़े पाए थे।
कितने हलों, नागरों की तब
नोकें मेरे वक्ष गड़ी थीं।
कितनी सरिताएं धनु की ढीली डोरी-सी क्षीण पड़ी थीं।
तालपत्र-सी धरती,
सूखी, दरकी कब से फटी हुई थी।
माएं मुझे निहार रही थीं, वधुएं मुझे पुकार रही थीं,
बीज मुझे ललकार रहे थे,
ऋतुएं मुझे गुहार रही थीं।

मैंने शैशव की
निर्दोष आंख में तब पानी देखा था।
मुझे याद आया,
मैं ऐसी ही आंखों का कभी नमक था।
अब धरती से दूर हुआ
मैं आसमान का धब्बा भर था।

मुझे क्षमा करना कवि मेरे!
तब से अब तक भटक रहा हूं।
अब तक वैसे हाथ जुड़े हैं,
अब तक सूखे पेड़ खड़े हैं,
अब तक उजड़ी हैं खपरैलें,
अब तक प्यासे खेत पड़े हैं।
मैली-मैली संध्या में
झरते पलाश के पत्तों-से
धरती के सपने उजड़ रहे हैं।
मैं बादल, मेरे अंदर कितने ही बादल घुमड़ रहे हैं।
कितने आंसू टप, टप, टप
मेरी छाती पर टपक रहे हैं।
कितने उलाहने मन में मेरे
बिजली बन लपक रहे हैं।
अंदर ही अंदर मैं
कब से फफक रहा हूं।
मेरे मन में आग लगी है
भभक रहा हूं।
मैं सदियों के अंतराल में
वाष्पचक्र-सा घूम रहा हूं।
बार-बार सूखी धरती का
रूखा मस्तक चूम रहा हूं।
प्यास मिटा पाया कब इसकी
घुमड़ रहा हूं, घूम रहा हूं।
जिस पृथ्वी से जन्मा
उसे भुला दूं
यह कैसे संभव है?
पानी की जड़ है पृथ्वी में
बादल तो केवल पल्लव है।
मुझमें अंतद्र्वन्द्व छिड़ा है।
मुझे क्षमा करना कवि मेरे!
तुमने जो दिखलाया मैंने
उससे कुछ ज्यादा देखा है।
मैंने सदियों को मनुष्य की आंखों में घुलते देखा है।
मेरा मन भर आया है कवि,
अब न रुकूंगा।
अलका भूल चुकी मैं अब तो
इस धरती की प्यास हरूंगा।
सूखे पेड़ों, पौधों, अंकुओं की अब मौन पुकार सुनूंगा।
सूखी रहे तेरी अलका मैं
यहीं झरूंगा।
अगर मृत्यु भी मिली
मुझे तो
यहीं मरूंगा।
मुझे क्षमा करना कवि मेरे!
मैं अब अलका जा न सकूंगा।
मुझे समय ने याद किया है
मैं खुद को बहला न सकूंगा।
जब अंकुआए धान,
किसी कजरी में तुम मुझको पा लेना।
मैं हूं नहीं कृतघ्न मुझे तुम शाप न देना!
मैं असाढ़ का पहला बादल
शताब्दियों के अंतराल में घूम रहा हूं।
बार-बार सूखी धरती का रूखा मस्तक चूम रहा हूं।

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