साथ-साथ

Tuesday, April 12, 2011

इश्तहार इक लगा गया कोई

बीती सदी में लिखी कैफी आजमी की यह गजल आज के वक्त और हालात पर भी लागू हो रही है तो जरा सोचिए कि हमने कितनी तरक्की की है और आम आदमी की जिंदगी में कितनी और कैसी बेहतरी आई है?

हाथ आकर लगा गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोई।

लग गया इक मशीन में मैं भी
शहर में ले के आ गया कोई।

मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी
इश्तहार इक लगा गया कोई।

ऐसी महंगाई है कि चेहरे भी
बेच के अपना खा गया कोई।

अब कुछ अरमां हैं न कुछ सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई।

ये सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई।

वो गए जब से ऐसा लगता है
छोटा-मोटा खुदा गया कोई।

मेरा बचपन भी साथ ले आया
गांव से जब भी आ गया कोई।

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