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Saturday, March 26, 2011

वीर रस विदा

जिस तरह की लड़ाइयों और जय-पराजय के बीच वीर रस का सरोवर लबालब भरा रहता था, उनसे हम बहुत दूर आ चुके हैं, सो वह सरोवर सूख चुका है- वीर रस की विदाई हो चुकी है। अब संघर्ष यानी जीवन संघर्ष के मायने बदल चुके हैं। समकालीन दौर के बहुचर्चित व महत्वपूर्ण कवि कुमार अंबुज की यह कविता पढि़ए-

एक दीवार पर दो तलवारें देखकर / कुमार अंबुज

कब कौन-से युद्ध लड़े गए इनसे
किसी को याद नहीं
दीवार के चेहरे पर एक जोड़ी मूंछों की तरह
चिपकी हुई ये तलवारें
इस मकान को विरासत में मिली हैं

दशहरे की पूजा के निशान
सालभर चमकते हैं मूठ पर
घर का मालिक मेहमान का स्वागत करते हुए
कनखियों से तलवारों की तरफ देखता है
और दोनों के बीच दो तलवारें खड़ी हो जाती हैं
जिन्हें मालिक मूंछों की तरह उमेठता है

तलवारें याद दिलाती हैं
कि घर कभी जमींदारी की रोशनी में जगमगाता था
तलवारें बताती हैं कि लोग झुककर सलाम करते हुए
अपने ही जूतों पर बैठकर बात करते थे
कि तलवारों पर नहीं पड़ सकी कभी
किसी नीच आदमी की परछाईं

ये तलवारें उजड़ चुके वैभव का चमकदार दुख हैं
रात की गहन चुप्पी में इनकी मूठों से
कराह और रोने की मिली-जुली आवाज आती है
कुछ घुड़सवारों के कटे हुए हाथ
तलवारों को रातभर भांजते हैं

यह पूरी दीवार इन तलवारों के सहारे खड़ी है
और पूरा घर इस एक  दीवार के सहारे
अगर हट गईं ये तलवारें
तो भरभराकर गिर पड़ेगा यह घर...

फिलहाल इनके लोहे पर जंग लग चुका है
और धार पड़ गई भोथरी इतनी
कि नहीं काटा जा सकता एक आलू भी।

1 comment:

  1. अभी वीर रस की आवश्यकता है, लेकिन अब सामंतों, पूंजीपतियों के लिए नहीं। जनता के लिए।

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