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Wednesday, March 23, 2011

पुराने जमाने में आंसुओं की बहुत कीमत थी

हिंदी की साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रकारिता को नई ऊंचाई देनेवाले मंगलेश डबराल समकालीन हिंदी कविता के प्रातिनिधिक स्वर हैं। पहले ही कविता संग्रह पहाड़ पर लालटेन से चर्चित मंगलेश की कविता पुस्तकों घर का रास्ता और आवाज भी एक जगह है में उनकी कविता का व्यापक फलक देख सकते हैं। पढि़ए उनकी एक कविता-

आंसुओं की कविता / मंगलेश डबराल

पुराने जमाने में आंसुओं की बहुत कीमत थी/ वे मोतियों के बराबर थे और उन्हें बहता देखकर सबके दिल कांप उठते थे/अपनी-अपनी आत्मा के मुताबिक वे कम या ज्यादा पारदर्शी होते थे और रोशनी को सात से अधिक रंगों में बांट देते थे

बाद में आंखों को कष्ट न देने के लिए कुछ लोगों ने मोती खरीदे और उन्हें महंगे और स्थाई आंसुओं की तरह पेश करने लगे। इस तरह आंसुओं में विभाजन शुरू हुआ/असली आंसू धीरे-धीरे पृष्ठïभूमि में चले गए/दूसरी तरफ मोतियों का कारोबार खूब फैल चुका है

जो लोग सचमुच रोते हैं अंधेरे में अकेले दीवार से माथा टिकाकर उनकी आंखों से बहुत देर बाद बमुश्किल एक आंसूनुमा चीज निकलती है और उन्हीं के शरीर में गुम हो जाती है।

1 comment:

  1. सुन्दर , जो लोग सचमुच रोते हैं अंधेरे में अकेले दीवार से माथा टिकाकर उनकी आंखों से बहुत देर बाद बमुश्किल एक आंसूनुमा चीज निकलती है और उन्हीं के शरीर में गुम हो जाती है।
    जिनके दिल वाकई रो रहे होते हैं ...उनकी आँखें तो पथरा जाती हैं ....

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