साथ-साथ

Monday, February 28, 2011

अनदेखे को देखना-अनसुने को सुनना

कवि के लिए बड़ा काम है न देखे जा रहे को देखना और न सुने जा रहे को सुनना। इसके बहुत अच्छे उदाहरण के रूप में बहुचर्चित कवि अरुण कमल की कविताएं देखी-पढ़ी जा सकती हैं। जैसे कि यही दो कविताएं...

॥ नए इलाके में॥

इन नए बसते इलाकों में
जहां रोज बन रहे हैं नए नए मकान
मैं अक्सर रास्ता भूल जाता हूं

पुराने निशान धोखा दे जाते हैं
खोजता हूं विस्मय से पपीते का पेड़
खोजता हूं ढहा हुआ घर
और जमीन का खाली टुकड़ा जहां से बाएं
मुडऩा था मुझे
फिर दो मकान बाद बिना रंग वाले
लोहे के फाटक का घर था
                        इकमंजिला

और मैं हर बार पीछे लौट आता हूं एक घर
या दो घर आगे चल देता हूं

यहां रोज कुछ बन रहा है
यहां रोज कुछ घट रहा है
यहां स्मृति का भरोसा नहीं
एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया

अब यही है उपाय
कि हर दरवाजा खटखटाओ और पूछो-
क्या यही है वो घर?

आ चला पानी
ढहा आ रहा आसमान।

॥ जैसे॥

जैसे
मैं बहुत सारी आवाजें नहीं सुन पा रहा हूं
चींटियों के शक्कर तोडऩे की आवाज
पंखुड़ी के एक एक कर खुलने की आवाज
गर्भ में जीवन-बूंद गिरने की आवाज
अपने ही शरीर में कोशिकाएं टूटने की आवाज

इस तेज बहुत तेज चलती पृथ्वी के अंधड़ में
जैसे मैं बहुत सारी आवाजें नहीं सुन रहा हूं
वैसे ही तो होंगे वे लोग भी
जो सुन नहीं पाते गोलियां छूटने की आवाज ताबड़तोड़
और पूछते हैं- कहां है पृथ्वी पर चीख?

1 comment:

  1. वैसे ही तो होंगे वे लोग भी
    जो सुन नहीं पाते गोलियां छूटने की आवाज ताबड़तोड़
    और पूछते हैं- कहां है पृथ्वी पर चीख?
    दोनो कवितायें समाज का चेहरा दिखाती हुयी।ाज मानव खुद अपनी आवाज़ सुनने मे भी असमर्थ सा महसूस होता है। अरुण कमल जी की रचनायें पढवाने के लिये आभार।

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