आज अपनी हिन्दी का फलक विश्वव्यापी है, लेकिन इसकी जड़ें कहां हैं? यह भी हम बाबा नागार्जुन की कविताओं में बखूबी देख सकते हैं। गांवों से उखड़कर जो जिंदगियां शहरों के गमलों में रोप दिए जाने के लिए अभिशप्त हैं, उनके मन में हूक जगा सकती है 1959 की उनकी यह कविता-
बहुत दिनों के बाद/ नागार्जुन
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी-भर देखी
पकी-सुनहली फसलों की मुस्कान
-बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैं जी-भर सुन पाया
धान कूटती किशोरियों की कोकिल-कंठी तान
-बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी-भर सूंघे
मौलसिरी के ढेर-ढेर-से ताजे-टटके फूल
-बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैं जी-भर छू पाया
अपनी गंवई पगडंडी की चंदनवर्णी धूल
-बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी-भर तालमखाना खाया
गन्ने चूसे जी-भर
-बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी-भर भोगे
गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श सब साथ-साथ इस भू पर
-बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद/ नागार्जुन
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी-भर देखी
पकी-सुनहली फसलों की मुस्कान
-बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैं जी-भर सुन पाया
धान कूटती किशोरियों की कोकिल-कंठी तान
-बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी-भर सूंघे
मौलसिरी के ढेर-ढेर-से ताजे-टटके फूल
-बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैं जी-भर छू पाया
अपनी गंवई पगडंडी की चंदनवर्णी धूल
-बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी-भर तालमखाना खाया
गन्ने चूसे जी-भर
-बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी-भर भोगे
गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श सब साथ-साथ इस भू पर
-बहुत दिनों के बाद
अब तो गांव मे मह सब भी नहीं रह गया है।
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