साथ-साथ

Saturday, January 15, 2011

चुप की जंजीर कटे

शाम या सांझ के बारे में बहुतेरे कवि-शायरों ने कविताएं लिखी हैं। ज्यादातर ऐसी कविताएं रूमानियत भरी और प्रकृति-चित्रण तक सीमित हैं। लेकिन शाम के बारे में फैज अहमद फैज की इस खूबसूरत नज्म का अंदाजे-बयां बिल्कुल अलहदा है।

शाम/ फैज अहमद फैज
इस तरह है के : हर पेड़ कोई मंदिर है
कोई उजड़ा हुआ बेनूर पुराना मंदिर
ढूंढ़ता है जो खराबी के बहाने कब से
चाक हर बाम, हर इक दर का दम-ए-आखिर है
आसमां कोई पुरोहित है जो हर बाम तले
जिस्म पर राख मले, माथे पे सिंदूर मले
सरनिगूं बैठा है चुपचाप न जाने कब से

इस तरह है के : पस-ए-पर्दा कोई साहिर है
जिसने आफाक पे फैलाया है यूं सहूर का दाम
दामन-ए-वक्त से पैबस्त है यूं दामन-ए-शाम
अब कभी शाम बुझेगी न अंधेरा होगा
अब कभी रात ढलेगी न सवेरा होगा

आसमां आस लिए है के ये जादू टूटे
चुप की जंजीर कटे, वक्त का दामन छूटे
दे कोई शंख दुहाई, कोई पायल बोले
कोई बुत जागे, कोई सांवली घूंघट खोले।
-----------------------------------------------
दम-ए-आखिर= आखिरी सांस, सरनिगूं= सिर झुकाए
पस-ए-पर्दा= पर्दे के पीछे, साहिर= जादूगर, आफाक= आकाश
सहूर का दाम= मायाजाल, पैबस्त= जुड़ा हुआ।

2 comments:

  1. लाजवाब...फैज़...

    ReplyDelete
  2. आसमां आस लिए है के ये जादू टूटे---- पता नही ये आस कब पूरी होगी।
    चुप की जंजीर कटे, वक्त का दामन छूटेफैज़ साहिब की रचना कमाल की है।

    ReplyDelete