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Wednesday, January 12, 2011

जब यार हमारा गुजरे था

नए साल में फिर आपको पढ़ा रहे हैं फैज अहमद फैज के कलाम। दो गजलें पेश हैं। पहली गजल दकनी उदर्ू के लहजे में है, हालांकि फैज का तो अपना ही अंदाज है, जो उनकी शायरी में हर कहीं मौजूद है।

॥ एक दकनी गजल॥
कुछ पहले इन आंखों आगे क्या क्या ना नजारा गुजरे था
क्या रौशन हो जाती थी गली जब यार हमारा गुजरे था

थे कितने अच्छे लोग के जिनको अपने गम से फुर्सत थी
सब पूछे थे अहवाल जो कोई दर्द का मारे गुजरे था

अब के तो खिजां ऐसी ठहरी वो सारे जमाने भूल गए
जब मौसम-ए-गुल हर फेरे में आ-आ के दुबारा गुजरे था

थी यारों की बहुतात तो हम अगयार से भी बेजार न थे
जब मिल बैठे तो दुश्मन का भी साथ दुबारा गुजरे था

॥ अपने जिम्मे है तेरा कर्ज॥
हसरत-ए-दीद में गुजरां हैं जमाने कब से
दश्त-ए-उम्मीद में गर्दा हैं दिवाने कब से

देर से आंख पे उतरा नहीं अश्कों का अजाब
अपने जिम्मे है तेरा कर्ज न जाने कब से

किस तरह पाक हो बे-आरजू लम्हों का हिसाब
दर्द आया नहीं दरबार सजाने कब से

पुर करो जाम के शायद हो इसी लहजा रवां
रोक रक्खा है जो इक तीर कजा ने कब से

फैज फिर कब किसी मकतल को करेंगे आबाद
लब पे वीरां है शहीदों के फसाने कब से

1 comment:

  1. देर से आंख पे उतरा नहीं अश्कों का अजाब
    अपने जिम्मे है तेरा कर्ज न जाने कब से आज ब्लॉगजगत के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया ऐसे लोगों ने

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