साथ-साथ

Saturday, December 4, 2010

तेरी शतरंज पे क्या-क्या नहीं था!

हिन्दी गजलगो हस्तीमल हस्ती किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनकी गजलों में जिंदगी के हजार रंग देखे जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात है कि वे लंबे समय से गजलें लिखते आ रहे हैं और मुंबई जैसे महानगर में रहते हुए भी उनके भीतर का मनुष्य पूरे ताप के साथ जिंदा है- न वह ठंडा पड़ा है और न मशीन बना है। इसकी भी वजह शायद उनकी गजलें ही हैं। पेश हैं उनकी दो गजलें...

दो गजलें/हस्तीमल हस्ती

॥ एक॥
टूट जाने तलक गिरा मुझको
कैसी मिटूटी का हूं बता मुझको।

मेरी खुशबू भी मर न जाए कहीं
मेरी जड़ से न कर जुदा मुझको।

अक्ल कोई सजा है या इनाम
बारहा सोचना पड़ा मुझको।

कोई मेरा मरज तो पहचाने
दर्द क्या और क्या दवा मुझको।

॥ दो॥
महोब्बत का ही इक मोहरा नहीं था
तेरी शतरंज पर क्या-क्या नहीं था।

सजा मुझको ही मिलनी थी हमेशा
मेरे चेहरे पे ही चेहरा नहीं था।

कोई प्यासा नहीं लौटा वहां से
जहां दिल था भले दरिया नहीं था।

हमारे ही कदम छोटे थे वरना
वहां परबत कोई ऊंचा नहीं था।

किसे कहता तवज्जो कौन देता
मेरा गम था कोई किस्सा नहीं था।

रहा फिर देर तक मैं साथ उसके
भले वो देर तक ठहरा नहीं था।

No comments:

Post a Comment