साथ-साथ

Thursday, November 11, 2010

अभी उम्र पड़ी है

अंधेरे में दूर कहीं रोशनी की तरह चमकते हैं फैज। उनकी नज्में थके और जख्मी मन को बड़ी ताकत देती हैं। पढि.ए उनकी यह छोटी-सी कविता...

ख्वाब बसेरा/फैज अहमद फैज

इस वक्त तो यूं लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज न अंधेरा न सवेरा
आंखों के दरीचों में किसी हुस्न की झलकन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा
मुमकिन है कोई वहम हो मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का एक आखिरी फेरा
शाखों में खयालों के घने पेड़ की शायद
अब आ के करेगा न कोई ख्वाब बसेरा
इक बैर, न इक महूर न इक रब्त, न रिश्ता
तेरा कोई अपना न पराया कोई मेरा

माना कि ये सुनसान घड़ी सख्त बड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फकत एक घड़ी है
हिम्मत करो जीने की अभी उम्र पड़ी है

1 comment:

  1. माना कि ये सुनसान घड़ी सख्त बड़ी है
    लेकिन मेरे दिल ये तो फकत एक घड़ी है
    हिम्मत करो जीने की अभी उम्र पड़ी है

    awesome...

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