साथ-साथ

Thursday, October 7, 2010

खो गई हैं कितनी चीजें

हमारे बीच से कितनी ही चीजें खो गई हैं, और लगातार खोती जा रही हैं- खासकर शहरी जीवन में। लेकिन देखिए कि आपाधापी कितनी है कि चीजों के खोने का अहसास भी नहीं होता। कवि विनोद दास की यह कविता कुछ खोने का अहसास कराती है...

एक वृक्ष की तरह नहीं/ विनोद दास

एक वृक्ष की तरह नहीं
एक प्रवासी-सा
सिर झुकाए खड़ा है
शहर में पेड़

इस्पाती डैनों के आतंक से
फुनगियों पर गप्प लगाने अब कम आते हैं
उसके चिरसखा कौव्वे और तोते

एक वृक्ष की तरह नहीं
एक निराश मित्र की तरह
सड़क किनारे खड़ा है
शहर में पेड़

सड़क की चिल्लपो से
गिलहरियों की उड़ जाती है नींद
और उन्होंने तज दिया
खोखल सरीखा पुराकालीन
पैतृक आवास

एक वृक्ष की तरह नहीं
दंगाग्रस्त इलाके के
एक निर्जन घर की तरह है
शहर में पेड़
उसकी हरी छाया हो गई है स्याह
प्रसन्न टहनियां जब लगाती हैं तेज पेंग
छूटने लगती है उसकी हंफनी
दमा मरीज की तरह

एक वृक्ष की तरह नहीं
पांव कटे एक सैनिक की तरह
अपनी सांस गिन रहा है
शहर में वह पेड़।

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