साथ-साथ

Thursday, March 25, 2010

अपने अपने राम

अरविन्द चतुर्वेद :
समर-भूमि में जब राम और रावण आमने-सामने हुए, तब दोनों किस हालत में थे? राम पैदल थे और रावण रथ पर सवार था। गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं-रावण रथी विरथ रघुवीरा। यानी रावण रथयात्री था और राम पदयात्री। राम-रावण युद्ध रथयात्री और पदयात्री के बीच का युद्ध था। रावण रथ पर सवार था तो समर भूमि में घोड़ों की टापें उनकी हिनहिनाहट और रथ के पहियों की घरघराहट वैसे ही आतंक और भय का वातावरण बना रही थीं, ऊपर से अपने सामने पदयात्री राम को पाकर रावण का दम्भ सातवें आसमान पर चढ़कर अटूटहास बन कर गूंज रहा था। रावण को दम्भ था रथी यानी साधन सम्पन्न होने का, रावण को दम्भ था स्वयंभू शिवभक्त होने का- मैं ही सबसे बड़ा, सबसे सच्चा शिवभक्त हूं, बाकी सब तुच्छ हैं, नकली हैं, नर-वानर हैं। ये क्या जानें धर्म क्या है, ये क्या जानें ज्ञान क्या है? उधर राम ने दम्भ से नहीं, विनय से, शील से, चरित्र से और नर-वानर जैसे साधारण वनवासियों को स्नेह-सम्मान देकर उनके भीतर स्वाभिमान जगाकर शक्ति का संचार करके रावण को हरा दिया। उसके दम्भ की सेना भहराकर गिर पड़ी। यही होता है। धर्म धुरन्धर होने अथवा रथयात्री होने का दम्भ थोड़ी देर के लिए प्रचंड होकर वातावरण में उथल-पुथल तो मचा सकता है, मगर मनुष्यता की समर भूमि में विजय तो अंतत: उसी की होती है, जो अकम्पित सहिष्णुता से काम लेते हुए सच्चाई के रास्ते पर चलता है और अपने आचरण में सबके हित की कामना संजोए रखता है। सच्चाई के रास्ते पर रावण के रथ के पहिए नहीं दौड़ सकते, उस पर तो धीर-गम्भीर संकल्पित राम के अकम्पित चरण ही चल सकते हैं।
समूची रामकथा पर नजर डलिए तो यह याद कर पाना बड़ा कठिन है कि राम ने कब-कब रथ की सवारी की थी? उनका जीवन जन साधारण के बीच पदयात्री की तरह ही बीता। वह भी साधारण पदयात्री नहीं, राजधानी का राज वैभव छोड़ सरयू पार चौदह वषों के वनवास का। अपने जन के पास राम स्वयं गए। किसी को अपने पास नहीं बुलाया, खुद चलकर उसके पास गए। वे विपन्न शबरी की झोपड़ी में गए और उसके हाथों जूठे बेर खाकर उसके साझीदार बन गए। केवट की नाव पर बैठकर नदी पार की। अपने भोलेपन में केवट ने जब राम को नाव पर बैठाने से नाव के गायब हो जाने के च्रिस्क’ की चर्चा की तो उसे अपने पांव धुलाने से मना नहीं किया। राम ने साधारण लोगों का प्रेम पाने के लिए क्या-क्या नहीं किया। देखते ही देखते वे सबके मन में बैठ गए। अयोध्या छोड़कर वे अगेह बन गए और सबके मन में एक अयोध्या बसा दी। इसीलिए रामकथा में जो सज्जे रामभक्त हैं, उन्हें अयोध्या से कुछ खास लेना-देना नहीं है। वे राम से मतलब रखते हैं, अयोध्या के मोहताज नहीं है।
इस तरह हम पाते हैं कि विभिन्न रामकथाओं और गाथाओं के जरिए जन-जन में बसे राम सर्व सुलभ हैं। वे केवल अयोध्या में नहीं पाए जाते। उनकी कथा इसलिए अनंत है क्योंकि जितने मुंह-उतने राम हैं। इसीलिए कहा गया है राम से बड़ा राम का नाम। असल में राम का मिथक वह भारी चटूटान है कि जिसने भी उस पर कभी आधिपत्य जमाने की हिमाकत की, वह निश्चय ही उसके भार से कुचल जाएगा। अगर आप हनुमान सरीखे राम सेवक हैं तो उन्हें अपने हृदय में बसाने का दावा कीजिए, किसी शहर किसी मंदिर में नहीं।
रामकथा और रामचरित की लम्बी काव्य-परम्परा हमारे पास मौजूद है। वाल्मीकि से शुरू हुई राम काव्य की परम्परा का अच्छा-खासा विकास संस्कृत काल में ही देखने को मिल जाता है। कालिदास के च्रघुवंश’ महाकाव्य के अलावा भवभूति का च्उत्तर राम चरितम’ और भास का च्प्रतिमा नाटकम’ संस्कृत साहित्य की उपलब्धि हैं। विभिन्न भारतीय भाषाओं में ही नहीं अनेक बोलियों में भी राम काव्य की गूंज सुनाई देती है। हिंदी में कबीर के भी राम हैं, और तुलसी के तो हैं ही। आाधुनिक हिंदी काव्य संसार में मैथिली शरण गुप्त का च्साकेत’ महाकाव्य एक वरेण्य कृति है। नेरश मेहता के खंडकाव्य च्संशय की एक रात’ की मर्मस्पर्शिता का भला कौन कायल नहीं होगा। महाकवि निराला की अमर कृति च्राम की शक्तिपूजा’ आज भी रावणी शक्ति और निर्मम निर्लज्ज सत्ता लोलुपता के प्रतिकार की सच्ची प्रेरणा देती है, बशर्ते हम लेना चाहें। अफसोस तो इस बात का होता है कि रामकाव्य का इतना भव्य मंदिर अपने पास होते हुए भी हम इंट-गारे के एक अदद मंदिर के लिए मरे जा रहे हैं। रावणी शक्ति के आगे समर में खड़े राम को महाकवि निराला के शब्दों में जामवन्त द्वारा दिया गया यह परामर्श क्या हम याद नहीं रखना चाहेंगे-
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर।
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त।
तो निश्चय तुम हो सिद्ध, करोगे इसे ध्वस्त।

1 comment:

  1. हां, रावण की तुलना में राम श्रेष्‍ठ तो थे ही इसमें कोई दो राय नहीं। आपका लेख आरएसएस वालों को समझ में आ जाए तो समझिएगा लिखना सफल हुआ।
    एक नजरिया यह भी है कि राम राजा थे, उन्‍होंने भी तब दलित कार्ड खेला था।

    एम. अखलाक

    ReplyDelete