रचने को यानी सृजन को इस तरह भी देख सकते हैं कि अपना "सबकुछ" देकर ही कुछ रचा या सिरजा जा सकता है। कवि त्रिलोचन कहा करते थे कि कविता समूची जिंदगी मांगती है। वैसे भी प्रकृति को देखिए तो पाएंगे कि पतझर में अपना सर्वस्व दे चुकने के बाद वृक्ष हरियाली का नया वैभव हासिल कर पाते हैं। प्रतिमाओं की पूजा भी सृजन की ही आराधना है और उनका विसर्जन इसीलिए किया जाता है कि फिर से सृजन को संभव किया जा सके- नया रचा जा सके। अब पढि.ए श्रीकांत वर्मा की कविता "हवन", जो 1979 की रचना है और "मगध" संग्रह में संकलित है।
।। हवन।।
चाहता तो बच सकता था
मगर कैसे बच सकता था
जो बचेगा
कैसे रचेगा
पहले मैं झुलसा
फिर धधका
चिटखने लगा
कराह सकता था
मगर कैसे कराह सकता था
जो कराहेगा
कैसे निबाहेगा
न यह शहादत थी
न यह उत्सर्ग था
न यह आत्मपीड़न था
न यह सजा थी
तब
क्या था यह
किसी के मत्थे मढ़ सकता था
मगर कैसे मढ़ सकता था
जो मढ़ेगा कैसे गढ़ेगा।
विकुल सही कहा.....जो मढ़ेगा कैसे गढ़ेगा।
ReplyDelete.....
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मेरा ये पोस्ट आप और बच्चे भी पसंद करेंगे.......
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विश्व जल दिवस..........नंगा नहायेगा क्या...और निचोड़ेगा क्या ?...
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से..
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html
👌👌🙏🙏
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