विख्यात जनकवि नागार्जुन को मैंने उनके बुढ़ापे में देखा था। कोलकाता में उनसे अच्छी मुलाकातें भी हुईं - कई बार, कई दिनों तक। बहुतेरे दूसरे लोगों की तरह मैं भी उन्हें बाबा’ कहता था। यहां मेरे जन्म से एक साल पहले यानी 1957 में लिखी उनकी एक प्रेम कविता प्रस्तुत है। 1911 में जन्में नागार्जुन की यह कविता 1957 की है। मतलब कि तब उनकी उम्र 46 साल थी। कहने की जरूरत नहीं कि यह कविता पत्नी के प्रेम में लिखी गई है और अपनी तरह की अनूठी कविता है...
तन गई रीढ़
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नागार्जुन
झुकी पीठ को मिला
किसी हथेली का स्पर्श
तन गई रीढ़
महसूस हुई कंधों को
पीछे से,
किसी नाक की सहज उष्ण निराकुल सांसें
तन गई रीढ़
कौंधी कहीं चितवन
रंग गए कहीं किसी के होठ
निगाहों के जरिए जादू घुसा अंदर
तन गई रीढ़
गूंजी कहीं खिलखिलाहट
टूक-टूक होकर छितराया सन्नाटा
भर गए कर्णकुहर
तन गई रीढ़
आगे से आया
अलकों के तैलाक्त परिमल का झोंका
रग-रग में दौड़ गई बिजली
तन गई रीढ़
शुक्रिया कविता पढवाने का.
ReplyDeleteआगे से आया
ReplyDeleteअलकों के तैलाक्त परिमल का झोंका
रग-रग में दौड़ गई बिजली
तन गई रीढ़ .nice