अरविन्द चतुर्वेद
रह रह छाया कांपती सदा हवा के संग.
आँखों से उड़ जात है मौसम का हर रंग..
पेड़ तप रहे धूप में रह रह उठती आह.
पगडण्डी की पीठ पर बंजारे की राह..
हरियाली के नाम पर मन में उठती हूक.
परती धरती क्या कहे हुआ कलेजा टूक..
गुस्से में सूरज तपे हुई कौन-सी भूल.
आँख उठा कर देखते हवा झोंकती धूल..
बैरी को भी ना लगे गर्मी की यह धूप.
जिसके आगे अधमरे नदी ताल औ कूप..
गर्मी के आतंक से सब बैठे सर थाम.
यह भी क्या हिम्मत रही बौराए हैं आम..
bahut -bahut sundar kavita ..
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