न जाने कितने रात-दिन के बाद
जब कि अंधकार और जिन्दगी में
फर्क कर पाना भी मुश्किल हो रहा था
हमारे लिए
मैंने उससे कहना चाहा- प्यार
और कह गया- तुम उदास क्यों हो ?
दरअसल
मुझे रौशनी की जरूरत थी
और उसे भी
जरूरत थी कि
हम साथ-साथ उजाला पा सकें
अँधेरी गलियों में गुजरते हुए
एक - दूसरे का हाथ थामे
साथ-साथ यह जानते हुए
कि अँधेरे से रौशनी के दरम्यान
कितना फासला है
और कितनी थकान
उसने मुझसे कहना चाहा- प्यार
और कह गयी- तुम्हारी नौकरी का
क्या हुआ, इस बार ?
मैंने कहा- जिन्दगी...
वह बोली- माँ बीमार है और उसे
मेरी उमर की भी बड़ी चिंता है
मैंने कहा- चलो, थोड़ी देर यूं ही
घूम लेते हैं पार्क से आगे वाली सड़क तक
उसने कहा- क्या तुम थक नहीं गए हो ?
मैंने उससे कहना चाहा प्यार
और कह गया उदास क्यों हो !
जिन्दगी की कशमकश में..कितनी बार ही कहना चाहा प्यार और कह गये कुछ और...बहुत उम्दा भाव!
ReplyDeleteअसली वैलेंटाईन कविता
ReplyDeleteमैं अरविंद चतुर्वेद से कभी मिला नहीं हूँ. ज़ाहिर है मैंने अपनी व्यथा कथा उनसे कभी नहीं बतायी होगी. जब मैं यह कविता पढ़ रहा था तो मुझे लगा कि यह बात तो हम दोनों के अलावा कोई जानता नहीं था, अरविंद को किसने बताया होगा. . यह इतनी वास्तविक है कि एक मिनट के लिए लगा कि अरविंद मेरी पोल खोल रहे हैं .ठीक ऐसा ही हुआ था उस १९७३ की जुलाई में मेरे और मेरी मित्र के बीच . कितनी रियल है यह कविता.
ReplyDeleteप्रिय अरविंद जी बहुत ही लाजवाब अभिव्यक्ति है। वाकई जिंदगी की जिस सच्चाई को आपने इस कविता में बयान किया है, वही सच है बाकी छलावा और प्रपंच। आपकी रचनाएं कुछ सोचने को विवश करती हैं। कुछ सवाल उठाती हैं जिनके जवाब शायद अभी भी तलाशने बाकी हैं। बहुत खूब, यों ही लिखते रहिए।-राजेश त्रिपाठी
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