साथ-साथ

Sunday, January 10, 2010

घर - गिरस्ती की तरह

इस महंगाई के जमाने में
जहां आदमी और मेहनत के सिवा
हर चीज की कीमत हैसियत के बाहर है
घर - गिरस्ती की तरह लिखी जाये कविता
तो बुरा मत मानियेगा !

महीने की तलब का आधा
जहां चला जाता हो
मकान - भाड़ा, राशन - दूकान के उधार में
स्कूल की फीस के सिवा
और कुछ भी न कर पाते हों
बच्चे के प्यार में
पत्नी का सूखा चेहरा
ताकता रह जाए सालभर का बोनस
और बरस - बरस का त्यौहार
ऐसे में आता हो दुह्स्वप्न-सा
किसी मेहमान के आ पहुँचने का विचार

घर - गिरस्ती की तरह लिखी जाए कविता
तो क्या आप पढ़ेंगे किसी मेहमान की तरह ?

दिन तो काटने पड़ते हैं फीकी कडवी चाय की तरह
सूखी, बेमज़ा रोटी - दाल की तरह
कहाँ है रस इन चीजों में
बस किसी तरह चलानी पड़ती है गिरस्ती

मगर आप पढ़ेंगे जब कविता
तो उसमें कुछ तो रस - स्वाद होना ही चाहिए
वर्ना कहाँ रहेगी कवि की आबरू !

मगर आजकल है बहुत मुश्किल
अब आपसे क्या छिपाना
घर - गिरस्ती की तरह लिखी जाए कविता
तो कभी दाल में नमक की कमी
और सब्जी में मिर्च ज्यादा होगी ही
चावल में कंकड़ और आटे में रेत-मिट्टी हो
तो इस मिलावट के जमाने में
न हम कुछ कर सकते हैं
न आप
आप अपने हैं - घर के आदमी
कोई पराये तो हैं नहीं
घर - गिरस्ती की तरह लिखी जाए कविता
तो बुरा मत मानियेगा !

1 comment:

  1. बिल्कुल बुरा नहीं लगा, आपके घर नहीं आएंगे, आपकी दाल रोटी में हिस्सा नहीं बनाएंगे, बस इसी आभासी जगत में अपना रिश्ता बढ़ाएंगे।

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