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Thursday, December 10, 2009

ख़ुद के तुम दुश्मन

तुम्हारी बुद्धि मारेगी तुम्हारा मन

बनोगे ख़ुद के तुम दुश्मन

कैरियर का ग्राफ ऊपर तब उठेगा

जिंदगी के रंग से जब हाथ धो लोगे

भेद खोलोगे नहीं तुम

आग बुझने का

बस धुआं ऊपर उठेगा

और ऐसे धुंधलके में तुम

फिरोगे ख़ुद की छाया बन

तुम्हारी बुद्धि मारेगी तुम्हारा मन ...

तुमने अब तक कितनी रूई

धुन लिया प्यारे

बुन लिया ख़ुद के लिए

ऐसा चमकता जाल

की जिसको तोड़कर बाहर निकलना

नहीं मुमकिन, नहीं कोई हाल

अब नहीं गलती तुम्हारी दाल

ख़ुद के लिए तुमको मिला

यह आत्म निर्वासन-

तुम्हारी बुद्धि मारेगी तुम्हारा मन

बनोगे ख़ुद के तुम दुश्मन !

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर शब्द और अत्यंत सुन्दर भाव...वाह...अद्भुत रचना रच डाली है आपने...बधाई..
    नीरज

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  2. वाह व्यंग्यात्मक अंदाज़ में अच्छी बातें कहीं आपने

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  3. बुद्धि मारेगी तुम्हारा मन ...
    इसीलिए तो हमेशा दिमाग पर दिल को ही तरजीह दी है ...!!

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  4. अत्यंत सुन्दर अद्भुत

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