गाँव का मालिक उनको कहता
बड़े अनाड़ी
मर्द पहाड़ी ।
हाथ में बंशी
सोई भैंस
बड़ी रात
सपनों का तैश
काँप रही जाड़े में काया
जलते ठीकरे
गरमी से लैस
दूर - दूर उठती - गिरती पर
राग पहाड़ी
थामे ताड़ी ।
मगर एक दिन
चिनगी उठी आग से
उसने बंशी के राग से
मुंह मोड़ा -
घोर अन्धेरा यह सन्नाटा
वह तोड़ेगा -
नंगे पाँव चुभ गया काँटा
बस, फेंका बंशी
कसकर मारी एक कुल्हाड़ी ।
जागा मालिक
कांपा मालिक
गरम दुशाला
ढांपे मालिक
- धीमी नाडी ।
खड़े पहाड़ी
अड़े पहाड़ी
बहुत अगाडी
बहुत पिछाड़ी
साथ खड़े थे
साथ अड़े थे -
मालिक साला
फ़ेंक दुशाला
हम नहीं अनाड़ी
मर्द पहाड़ी ।
बहुत सही हव !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शब्द चित्र खींचा है। सुन्दर रचना है।
ReplyDeleteअत्यंत सुन्दर भाव...
ReplyDelete