साथ-साथ

Tuesday, November 10, 2009

मेरा शहर

जब मैं कविता लिख रहा था
कुछ लोग हडबडी में थे
दफ्तर पहुँचने की
कुछ को कारोबार की फ़िक्र सताए थी
कुछ ऐसे थे
जो भागे जा रहे थे
सड़क पर एक -दूसरे को धकियाते
राजधानी की ओर।

यहाँ तक की मेरा पड़ोसी
सुबह घर से गायब होता था
और एक आला अफसर के आगे -पीछे
दिन भर घूमते हुए ठेकेदार बन बैठा

जब कविता पूरी हुई
तब तक कुछ लोग बड़े इत्मीनान के साथ
दुनिया को जहन्नुम में भेजते हुए
अपने -अपने दफ्तर में प्रमोशन पा चुके थे
कारोबार की फ़िक्र
मुनाफे की ठसक में तब्दील हो चुकी थी
जो भागे जा रहे थे
सड़क पर एक -दूसरे को धकियाते
संसद के स्वर्ग में विराजने लगे थे
पड़ोसी से ठेकेदार हुए आदमी के प्रताप से
एक स्कूल की छत पहली ही बरसात में
यूँ भहराई की दब मरे बीस बच्चे
भरी जवानी में
सड़क के गड्ढे में पाँव तुडा कर
एक आदमी ने पकड़ ली चारपाई

नगर पिता का कमाल लाजवाब साबित हुआ -
वह जितनी दवाएं बंटवाता
बीमारों की तादाद
उतनी ही बढ़ जाती हर साल

शहर में जितनी ऊंची उठती जाती है दीवार
उतने ही ज्यादा उस पर चस्पा होते जाते इश्तहार ।

1 comment:

  1. असली रचना कर्म लंबा खिंचा और अनैतिकता जल्दी ऊपर चली गई। आपकी एक रचना के दौरान ज़माना बदल गया। ये सच है कि अब दीवारें बिना इश्तेहार जंचती नहीं।

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