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Sunday, June 19, 2011

तू इस मशीन का पुर्जा है, तू मशीन नहीं

हिन्दी में नई कविता आंदोलन के प्रमुख कवियों में एक दुष्यंत कुमार का कविता संग्रह जलते हुए वन का बसंत और काव्य नाटक एक कंठ विषपायी भी साहित्यिक हलके में खासे चचर्ति रहे हैं, लेकिन पाठकों में व्यापक लोकप्रियता उन्हें आखिरी किताब साये में धूप की गजलों से मिली। आज भी दुष्यंत की गजलें वैसे ही पढ़ी जा सकती हैं, जैसे आठवें दशक में पढ़ी गइं। उदाहरण के लिए पढि.ए उनकी यह गजल-

गजल/दुष्यंत कुमार

तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं।
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं॥

मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहंू,
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।

तेरी जुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह,
तू एक जलील-सी गाली से बेहतरीन नहीं।

तुम्हीं से प्यार जताएं तुम्हीं को खा जाएं,
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं।

तुझे कसम है खुदी को बहुत हलाक न कर,
तू इस मशीन का पुर्जा है, तू मशीन नहीं।

बहुत मशहूर है आएं जरूर आप यहां,
ये मुल्क देखने के लायक तो है, हसीन नहीं।

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