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Saturday, June 4, 2011

सरों को काट के सरदारियां नहीं चलतीं

1917 से 1997 तक जिंदगी का सफर तय करने वाले मुशायरों के बादशाह कैफ भोपाली अपनी शायरी के फलसफे के बारे में कहते हैं- मंजिल न कोई राहगुजर चाहता हूं मैं/अपने ही दिल तक एक सफर चाहता हूं मैं। भोपाल के संभवत: सबसे लोकप्रिय शायर रहे कैफ साहब की पढि़ए यह गजल-

गजल/कैफ भोपाली

ये दाढिय़ां ये तिलकधारियां नहीं चलतीं
हमारे अहद में मक्कारियां नहीं चलतीं।

कबीले वालों के दिल जोडि़ए मेरे सरदार,
सरों को काट के सरदारियां नहीं चलतीं।

बुरा न मान अगर यार कुछ बुरा कह दे,
दिलों के खेल में खुद्दारियां नहीं चलतीं।

छलक-छलक पड़ीं आंखों की गागरें अक्सर,
संभल-संभल के ये पनहारियां नहीं चलतीं।

जनाबे-कैफ ये दिल्ली है मीरो-गालिब की,
यहां किसी की तरफदारियां नहीं चलतीं।

2 comments:

  1. बुरा न मान अगर यार कुछ बुरा कह दे,
    दिलों के खेल में खुद्दारियां नहीं चलतीं ।

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति...वाह

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